Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा
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विस्तार-क्षेत्र भी भिन्न है। पुद्गल - पिण्डों का विस्तार-क्षेत्र उनके आकार पर निर्भर करता है, जब कि प्रत्येक जीवात्मा का विस्तार-क्षेत्र उसके द्वारा गृहीत शरीर के आकार पर निर्भर करता है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका विस्तार-क्षेत्र या कायत्व के समान नहीं है । जैन दार्शनिकों ने उनमें प्रदेश दृष्टि से भिन्नता स्पष्ट की है। भगवती सूत्र में बताया गया है की धर्म द्रव्य और अधर्म के प्रदेश अन्य द्रव्यों की अपेक्षा सबसे कम हैं। वे लोकाकाश तक (within the limits of universe) सीमित हैं और असंख्य प्रदेशी है। आकाश की प्रदेश संख्या इन दोनों की अपेक्षा अनन्त गुण अधिक मानी है। आकाश अनन्त प्रदेशी है क्योंकि वह ससीम लोक (Finite Universe) तक सीमित नहीं है । उसका विस्तार अलोक में भी है। पुनः आकाश की अपेक्षा जीव द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुण अधिक हैं क्योंकि प्रथम तो जहां धर्म, अधर्म और आकाश का द्रव्य है वहां जीव अनन्त द्रव्य है। पुनः प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश हैं। जीव द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी पुदगल द्रव्य के प्रदेश अनन्त गुणा अधिक है क्योंकि प्रत्येक जीव के साथ अनन्त कर्मन्पुद्गल संयोजित है । यद्यपि काल की प्रदेश संख्या पुद्गल की अपेक्षा भी अनन्त गुण मानी गई, क्योंकि प्रत्येक जीव और पुद्गल की वर्तमान, अनादि भूत और अनन्त भविष्य की दृष्टि अनन्त पर्यायी है। अत: काल की प्रदेश-संख्या सर्वाधिक है। फिर भी उसका समावेश अस्तिकायों के सन्दर्भ में पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में होने की वजह से पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों की संख्या ही सर्वाधिक है।