Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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प्रमाणों से नयों का भेद
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अनन्त भी कहते हैं। परंतु अनेक पर्यायों के साथ द्रव्य का प्रत्यक्ष होता यह गाथा का अभिप्राय सिद्ध नहीं होता। जोपर्याय प्रत्यक्ष है उनके साथ प्रत्यक्ष हो सकता है। कुछ पर्यायों के प्रत्यक्ष होने पर भी द्रव्य का प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। परंतु देश-काल से व्यवहित पर्यायों के साथ द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं सिद्ध होता । अनन्त पर्यायात्मक होना एक वस्तु है और अनन्त पर्यायों के साथ प्रत्यक्ष होना-अन्य तत्त्व है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये उपा. श्री. यशोविजय जी कहते हैं-अनन्त धर्मात्मक वस्तु के होने पर भी स्पष्ट बोध अपेक्षा से होता है । वे कहते हैं-जहाँ शब्द से ज्ञान होता है वहाँ नय की अपेक्षा से होता है। जहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान है वहाँ सत्त्व अथवा असत्त्व आदि किसी नियत धर्म को लेकर अवधि और अपच्छेदक आदि के ज्ञान की अपेक्षा से होता है । दीर्घ परिमाण का प्रत्यक्ष, इस में उदाहरण है। जब दंड आदि का ज्ञान होता है तब उनके परिणाम का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। परन्तु यह इससे दीर्घ है- इस प्रकार का ज्ञान नियत अवधि की अपेक्षा से होता है। परंतु यदि अवधि प्रत्यक्ष न हो तो उस अवधि की अपेक्षा से होने वाला यह इससे दीर्घ है इस प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। परिणाम प्रत्यक्ष है, परंतु परोक्ष अवधि की अपेक्षा से होनेवाला अधिक दीर्घ परिमाण का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है अर्थात चक्षु अथवा त्वचा उसका प्रत्यक्ष नहीं कर सकती । परोक्ष क्या अवधि यदि प्रत्यक्ष भी हो तो इन दोनों में इस का परिणाम दीर्घ है-इस प्रकार का ज्ञान करने में बाह्य इन्द्रिय असमर्थ है । तुलना के साथ परिणाम के न्यूनाधिक भाव जानने में बाह्य-इन्द्रिय समर्थ नहीं, मन समर्थ है। अपेक्षा ज्ञान बाह्य इन्द्रिय से नहीं उत्पन्न होता, मन से उत्पन्न होता है। जब कभी दीर्व परिणाम को देखते ही ज्ञान होता है, तब उस में किसी नियत अवधि की तो अपेक्षा नहीं होती। पर सामान्य रूप से अन्य द्रव्य की अपेक्षा खुली है। चक्षु अथवा त्वचा परिमाण का प्रत्यक्ष स्वयं कर सकती है, परंतु दीर्घता अथवा हस्वता का ज्ञान मन की सहायता के बिना नहीं हो सकता। इस लिये दीर्घता आदि के प्रत्यक्ष को लेकर अनन्त धर्मों के साथ वस्तु के प्रत्यक्ष का उपपादन युक्त नहीं प्रतीत होता ।
सारांश इस प्रकार है-जय ज्ञान प्रमाण से उत्पन्न है और प्रमाणात्मक है। श्रुत प्रमाण से उत्पन्न है इसलिये शब्द प्रमाण स्वरूप है। सिद्धिविनिश्चय में स्पष्ट कहा हैस्यात्प्रमाणात्मकत्वेऽपि प्रमाण प्रभवो नयः । (सि. वि. पृ. ६६६-का. ३)
यदि नय प्रमाणात्मक है तो प्रमाण पद से ही उसका ज्ञान हो सकता था, फिर पृथक् नय शब्द से निर्देश क्यों किया? इतनी जिज्ञासा हो सकती है। इस का उत्तर इस प्रकार है-समस्त अर्यों के ज्ञान में दो ही ज्ञान समर्थ हैं-एक केवल ज्ञान और दूसरा श्रुतज्ञान । भेद इतना है-जो केवल ज्ञान है वह समस्त अर्थों को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है। परन्तु श्रुत ज्ञान अस्पष्ट रूप से प्रकाशित करता है । श्रुत का भेद नय है। इसलिये नयात्मक ज्ञान भी प्रत्यक्ष के समान सष्ट नहीं है। जितना भी श्रुत है, वह सब