Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna

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Page 235
________________ 220 STUDIES IN JAINISM भिन्न और अभिन्न भी है। परंतु अभिन्न होने के कारण वह पट अथवा पट के रूप आदि के समान चक्षु का विषय नहीं बन सकता। धर्मी का धर्मों के साथ भेद और अभेद हैइस तत्त्व को जानने वाला जब पट को देखता है तब पट और उसके रूप आदि का जो भेद और अभेद है उसका प्रत्यक्ष कर सकता है। पर परोक्ष वृक्ष आदि से जो भेद है उसका भेद-अभेद होने पर भी इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। उस भेद का ज्ञान मानस ज्ञान है। धूम के प्रत्यक्ष होने पर भी धूम के द्वारा वह्नि का जो ज्ञान है, वह मन के द्वारा होनेवाला अनुमानात्मक ज्ञान है। प्रत्यक्ष धूम के ज्ञान से उत्पन्न होने पर भी अनमान ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं माना जाता । अनन्त धर्मों के साथ अभेद होने पर भी उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं माना जा सकता। अनन्त धर्म धर्मी से अभिन्न है इसलिये प्रत्यक्ष धर्म के साथ प्रत्यक्ष धर्मी का ज्ञान होने पर धर्मी के साथ अभेद होने के कारण जब परोक्ष धर्म का ज्ञान होता है तो वह मन के द्वारा होता है बाह्य इन्द्रिय उसको उत्पन्न करने में असमर्थ है। इस विषय में श्री उपाध्यायजी ने नैयायिकों का मन के अनुसार सामान्य लक्षणा नामक संनिकर्ष के द्वारा उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञान का दृष्टान्त रूप में उल्लेख किया है । नैयायिक मानते हैं-घटत्व का जब प्रत्यक्ष होता है तब घटत्व के साथ संबंध रखनेवाले समस्त घटों का प्रत्यक्ष हो जाता है। इस प्रत्यक्ष को नैयायिक अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह दृष्टान्त भी अनन्त धर्मों के प्रत्यक्ष को नहीं सिद्ध कर सका। जो पुरोवर्ती घट है उसमें घटत्व प्रत्यक्ष हो सकता है। इस दशा में घट-और-घटत्व दोनों के साथ नैयायिक मत के अनुसार इन्द्रिय का संबंध हो सकता है। परन्तु जो घट व्यवहित अथवा अतीत-अनागत है उनके साथ अथवा उन में रहने वाले घटत्व के साथ इन्द्रिय का संबंध नहीं हो सकता । संबंध रहित घटों और उनमें रहनेवाले घटत्व का प्रत्यक्षबिना संबंध के इन्द्रियां नहीं कर सकती। प्रत्यक्ष घट में घटत्व सामान्य रूप है । जो अनेक व्यक्तियों में रहे इस कारण घटत्व के आश्रयभूत समस्त घटों का ज्ञान अनुमान है । और इसीलिये मानस ज्ञान है । अनुमान ज्ञान में प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग मख्य नहीं गौण हो सकता है । उपाध्याय जी ने यहाँ पर एक वस्तु के समस्त स्व और पर पर्यायों को प्रत्यक्ष सिद्ध करने के लिये सम्मति के कर्ता महावादी आचार्य सिद्धसेन गाथा को प्रमाण रूप में दिया है । (सन्मति का.१-३१ गाथा) गाथा इस प्रकार है-एगद विथम्मि जे अत्थ पज्जया वयण पज्जवा पावि । तीयाणा गय भूया तावइयं तं हवइ दव्यं ॥३१।। गाथा के अनुसार किसी भी एक परमाणु और जीव आदि द्रव्य में जितने भी अतीत अनागत शब्द पर्याय और अर्थ पर्याय होते हैं उतना ही वह द्रव्य हो जाता है । मुझे इस गाथा पर विचार करने से प्रतीत होता है कि पर्यायों का द्रव्य से भेद होने पर भी केवल भेद नहीं है अभेद भी है। इसलिये पर्यायों की जो अनन्त संख्या है वह एक द्रव्य की भी हो जाती है। इस रीतिसे गायाकार एक मूलद्रव्य को एक भी कहते हैं और

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