Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
View full book text
________________
A NOTE ON JAINA MYTHOLOGY
259
.
सागरमल जैन :
सर्वज्ञता के आधारपर क्यों नहीं ? डी. डी. मालवणिया :
द्वीप वर्णन में सर्वज्ञता को मानना ठीक नहीं । ऐसा मानना सर्वज्ञता का उपहास है । जैसे, आगे के काल में तीर्थंकर नहीं होंगे ऐसा महावीर का कोई वचन नहीं है। ऐसो बातें आगे के आचार्यों ने कही होंगी। प्रश्न:
देवानंदा ने देखे स्वप्न के प्रतीक कितने प्राचीन है ? डी. डी. मालवणिया:
उनका उल्लेख सर्व प्रथम कल्प सूत्र में मिलता है ; तथापि श्री. मुनिविजयजी महाराज संपादित कल्प सूत्र में एक नोट में लिखा है कि कल्प सूत्र के सब से प्राचीन प्रति में स्वप्न का उल्लेख /वर्णन नहीं मिलता। आज कल के कल्प सूत्र में है । तो भी उस में कब से आया यह कहना कठिन है । बुद्ध के माता ने देखे स्वप्नों की बात भी जातकों की है, प्राचीन काल की नहीं। प्रश्न :
जैन दर्शन में स्वस्तिक का क्या रहस्य है ? वह हिटलर के स्वस्तिक से कैसे भिन्न है ? दरबारलिाल कोठिया :
जैन दर्शन में प्रचलित स्वस्तिक का रहस्य इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। जन दर्शन में वस्तु की व्यवस्था तीन तरह से--- प्रतिपादन, हेय और उपादेय -- की गयी है। हेय-उपादेय दृष्टि से सात तत्त्वों का, ज्ञेय की दृष्टि से छः द्रव्यों का, प्रतिपादन की दृष्टि से नौ पदार्थों का वर्णन किया जाता है । इन में से हेय-उपादेय सब से महत्त्वपूर्ण है। मूलत: जीव-अजीव ये दो तत्त्व है। जीव का स्वभाव मूलतः ऊर्ध्वगमन का है और स्वस्तिक में होनेवाली खडी लकीर उसका निदर्शक है। उस में होनेवाली आडी लकीर जीव के ऊर्ध्वगमन को प्रतिबंधक वस्तुओं की द्योतक है । जीव का अजीव से संयोग कर्म है । अजीवगत सात तत्त्वों में पुद्गल, उसके धर्म, काल आदिका विवेचन आता है। पुद्गल जीव के ऊर्ध्वगमन को नहीं रोकता है। जीव-अजीव को जोड के पैदा होनेवाली दो लकीरों के चार अंत में होनेवाली आधी लकीरें देव, मनुष्य, पशु और नरक गति की द्योतक हैं । स्वस्तिक के ऊपर तीन बिंदुए रखी जाती हैं। ये तीन बिंदुएं सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्य की द्योतक हैं। उसके