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STUDIES IN JAINISM का संबंध ज्ञान या faith से होने के बजाय चारित्र्य से है। इन्होंने अपने निबंध में ज्ञान का विश्लेषण किया, चारित्र्य का नहीं। मेरे मतानुसार the nature of ethical judgements according to Jaina philosophy is essentially conative. इस प्रकार से अगर हम जैन Ethics का विश्लेपण और विवेचन करें तो वह और औचित्यपूर्ण होगा।
दयानंद भार्गव :
डॉ. सोगानी ने अहिंसा का जो लक्षण दिया है वह जनशास्त्रसंमत होते हुए भी अतिव्याप्त बनने से उस में परिष्कार की आवश्यकता है।
सागरमल जन:
डॉ. सोगानी जी का Value या मूल्य का स्वत:प्रामाण्य प्रस्थापित करने का प्रयास औचित्यपूर्ण नहीं है। वस्तुतः जैन परंपरा में शुभ और अशुभ ऐसी दो धारणाओं न होते हुए शुद्ध, शुभ और अशुभ ऐसी तीन धारणाए हैं। इनमें से शुभ और अशुभ समाजसापेक्ष है, अतः परतः प्रमाण हैं। शुद्ध भाव रागविहीन स्थिति होने से स्वतः प्रमाण है।
एस्. एम्. शहा :
पुराने सिद्धांतों का नयी भाषा में स्पष्टीकरण देने का सोगानी जी का प्रयत्न प्रशंसनीय होते हुए भी उनके निबंधपर मुझे तीन आशंकाए हैं : एक, शुभ और अशुभ से क्या मतलब है - auspicious and inauspicious ? दूसरी, शुभ और अशुभ सापेक्ष हैं या निरपेक्ष ? और तीसरी, शुभ का शिव से क्या संबंध है ?
सागरमल जैन :
__ शुभ का अहिंसा से और समाज से संबंध है ऐसा मानते हुए भी व्यक्ति और समाज की दृष्टी से जब शुभ और अहिंसा में फर्क हो तो कौनसी अहिंसा प्रमाणित ली जाए ? सामाजिक रूप में शुभ याने अहिंसा ऐसा मान लिया तो इस प्रकार की अहिंसा का चेतना से क्या संबंध है ? कमलचंद सोगानी:
Ethics में हमें शुद्ध की बात नहीं लानी चाहिए, नहीं तो हमारा Ethics religious ethics हो जाएगा। Ethics में हमें हमारा विचार शुभ-अशुभ तक ही सीमित रखना चाहिए। मेरा मंतव्य यह है कि Consciousness को छोडकर शुभ का विचार नहीं किया जा सकता।