________________
जैन न्याय : परिशीलन
107
जैन तथा बौद्ध-परम्परा का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो चुका था, किन्तु कुछ शताब्दियों के बाद वैदिक परम्परा का पुनः प्रभाव प्रसृत हुआ और वैदिक विद्वानोंद्वारा श्रमण परम्परा के सिद्धान्तों की आलोचना एवं काट-छांट आरम्भ हो गयी। (फलस्वरूप श्रमण बौद्ध परम्परा में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन प्रभृति विद्वानों का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने वैदिक परम्परा के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का खण्डन और अपने सिद्धान्तों का मण्डन, प्रतिष्ठापन तथा परिष्कार किया। उधर वैदिक परम्परा में भी कणाद, अक्षपाद, बादरायण, जैमिनी आदि महा उद्योगी विद्वानों का आविर्भाव हुआ और उन्होंने भी अश्वघोषादि बौद्ध विद्वानों के खण्डन-मण्डन का सयुक्तिक जबाब देते हुए अपने वैदिक सिद्धान्तों का संरक्षण किया। इसी दार्शनिक उठापटक में ईश्वरकृष्ण, असंग, वसुबन्धु, विन्ध्यवासी, वात्स्यायन प्रभृति विद्वान् दोनों ही परम्पराओं में हुए । इस तरह उस समय सभी दर्शन अखाड़े बन चुके थे और परस्पर में एक दूसरे को परास्त करने में लगे हुए थे। इस सब का आभास उस काल के अश्वघोषादि विद्वानों के उपलब्ध साहित्य से होता है । जब ये विद्वान् अपने-अपने दर्शन के एकान्त पक्षों और मान्यताओं के समर्थन तथा परपक्ष के निराकरण में व्यस्त थे, उसी समय दक्षिण भारत के क्षितिज पर जैन परम्परा में आचार्य गृध्र पिच्छ के बाद स्वामी समन्तभद्र का उदय हुआ। ये प्रतिभा की मूर्ति और क्षात्र तेज से सम्पन्न थे । सूक्ष्म एवं अगाध पाण्डित्य और समन्वय कारिणी प्रज्ञा से वे समन्वित थे। उन्होंने उक्त संघर्षों को देखा और अनुभव किया कि परस्पर के आग्रहों से वास्तविकता लुप्त हो रही है। दार्शनिकों का हट भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतेकान्त, अद्वैतेकान्त, अनित्यैकान्त, नित्यकान्त, भेदैकान्त, अभदैकान्त हेतुवादैकान्त, अहेतुवादैकान्त, अपेक्षावादैकान्त, अनपेक्षावादैकान्त, दैवैकान्त, पुरूषार्थंकान्त, पुण्यैकान्त, पापैकान्त आदि ऐकान्तिक मान्यताओं में सीमित है। इसकी स्पष्ट झलक समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में मिलती है।
समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में दार्शनिकों की इन मान्यताओं को देकर स्याद्वादन्याय से उनका समन्वय किया है। भावकान्तवादी अपने पक्ष की उपस्थापना करते हुए कहता था कि सब भावरूप ही है, अभाव रूप कोई वस्तु नहीं है - 'सर्व सर्वत्र विद्यते' (सब सब जगह है), न कोई प्रागभाव रूप है, न प्रध्वंसाभावरूप है, न अन्योन्याभावरूप है और न अत्यन्ताभावरूप है । अभाववादी इसके विपरीत अभाव की स्थापना करता था और जगत् को शून्य बतलाता था।
अद्वैतवादी का मत था कि एक ही वस्तु है, अनेक नहीं । अनेक का दर्शन मायाविजृम्भित अथवा अविद्योपकल्पित है। अद्वैतवादियों के भी अनेक पक्ष थे । कोई मात्र ब्रह्म का समर्थन करता था, कोई केवल ज्ञान को और कोई केवल शब्द को मानता था।द्वैतवादी इसका विरोध करते थे और तत्त्व को अनेक सिद्ध करते थे। द्वैत वादियों की भी मान्यताएँ भिन्न-भिन्न थीं । कोई सात पदार्थ मानता था, कोई सोलह और कोई पच्चीस तत्वोंकी स्थापना करता था ।