Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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प्रमाणों में नयों का भेद
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धर्म का ही निश्चय करने के कारण नयों को अप्रमाण कहा गया है । परन्तु इस हेतु से नयों का अप्रामाण्य नहीं सिद्ध होता । वस्तु के अनंत धर्मात्मक होने पर भी जो वाक्य' एक धर्म का प्रतिपादन करता हो और उसके विरोधी अन्य धर्मों का निषेध न करता हो वह वाक्य नय होता है। इस प्रकार का वाक्य जिरा ज्ञान को उत्पन्न करता है, वह ज्ञान दो को एक समझनेवाले ज्ञान के समान नहीं है । किन्तु एक को एक समझनेवाले ज्ञान के समान है। अतः नय है और इस कारण प्रमाण है । परन्तु जो वाक्य एक धर्म का प्रतिपादन करते हैं और अन्य विरोधी धर्म का निषेध करते हैं वे नय नहीं हैं - दुर्नय है। इस कारण अप्रमाण है।
दूसरे पक्ष के अनुसार सातों धर्मों का पर्याप्ति संबंध से एक धर्मी को अधिकरण बतानेवाला वाक्य प्रमाण कहा जाता है । परन्तु प्रमाण का यह लक्षण पारिभाषिक है। जो सप्तभंगी का कोई भी एक भंग है, वह भी वस्तु के सत्य स्वरूप का प्रकाशक है। दो अथवा तीन धर्मों का सत्यरूप से प्रकाशक वाक्य जिस प्रकार प्रमाण है, इस प्रकार एक धर्म का प्रकाशक वाक्य भी प्रमाण है । वह वाक्य नय है । परन्तु नय होते हुए प्रमाण है। सप्तभंगी का वाक्य प्रमाण है और एक भंग का प्रतिपादक वाक्य नय स्वरूप होता हुआ प्रमाण है । सप्तभंगी वाक्य नयों का समूह है अर्थात प्रमाणात्मक नयों का समूह है। इसलिये अनेक धर्मों का प्रतिपादक है । अनेक काष्ठों के समूह को काष्ठसमूह कहा जाता है । एक काष्ठ को काष्ठ कहा जाता है काष्ठ का समूह नहीं कहा जाता। परन्तु काष्ठ भाव दोनों में है । एक काष्ठ में काष्ठ-भाव न हो और काष्ठों के समूह में काष्ठभाव हो इस प्रकार की संभावना प्रत्यक्ष और युक्ति के विरुद्ध है । यदि नय प्रमाणस्वरूप नहीं तो नयों का समूह होने पर भी सप्तभंगी वाक्य प्रमाणवाक्य नहीं हो सकेगा। उस सप्तभंगी वाक्य से होनेवाली ज्ञान प्रमाणभूत ज्ञान नहीं हो सकेगा । इसलिये सप्तभंगी वाक्य को प्रमाण और नय वाक्य को प्रमाणभावसे रहित कहना पारिभाषिक प्रमाणभाव को लेकर युक्त हो सकता है । वस्तु के सत्यस्वरूप का प्रकाशक होने के कारण, जो प्रामाण्य है उसको लेने पर सप्तभंगी वाक्य के समान नयवाक्य को भी प्रमाणभूत मानना चाहिये । किसी भी ज्ञान के प्रमाणभूत होने के लिये स्व और पर का निश्चय करानेवाला स्वरूप होना चाहिये । यह स्वरूप सप्तभंगी वाक्य से उत्पन्न ज्ञान में जिस प्रकार है इस प्रकार एक नय वाक्य से उत्पन्न ज्ञान में भी है।
इतना प्रतिपादन करने के अनन्तर श्री यशोविजयश्री उपाध्याय कहते हैं - सम्मति नामक ग्रन्थ में जो मत प्रतिपादित है उसके अनुसार नय प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है । लौकिक प्रामाण्य के कारण नय प्रमाणरूप है। लोक विलक्षण अर्थात् अलौकिक प्रामाण्य का अभाव है इसलिये नय प्रमाणरूप भी है और अप्रमाणरूप भी है। इस अभिप्राय की प्रकाशक सम्मति की गाथा में जो कुछ कहा गया है वह इस प्रकार है। “नय जिस अंश का प्रतिपादन करते हैं उस विषय में वे सत्य ज्ञानरूप हैं अन्य धर्मों