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प्रमाणों से नयों का भेद
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है - नय न प्रमाण है, न अप्रमाण किन्तु दोनों से भिन्न प्रमाण का अंश ।
यहां पर भी विचार करने पर नय ज्ञान संदेह, भ्रम और समुच्चय से भिन्न तो प्रतीत होता है, परन्तु प्रमा से भिन्न नहीं प्रतीत होता । सप्तभंगी के समान सात धर्मो का प्रकार रूप से भाव नहीं है, इसलिये आप नयज्ञान को प्रमा से भिन्न कहते हैं। परंतु नय ज्ञान एक धर्म को प्रकार रूप से प्रकाशित करता है और उस प्रकाशन में कोई भूल नहीं है, किसी अविद्यमान धर्म का प्रकाशन नहीं है, इसलिये उसको प्रमा से भिन्न नहीं मानना चाहिये । दीपक इनेगिने अर्थों का प्रकाशक है और सूर्य समस्त संसार का प्रकाशक है । इतना भेद होने पर भी दोनों को प्रकाशक माना जाता है । अल्पसंख्या में पदार्थों का प्रकाश करने के कारण दीपक अप्रकाशक नहीं हो जाता । दीपक और सूर्य दोनों तेज हैं । तेज प्रकाशक है इसलिये दोनों प्रकाशक हैं । सप्तभंगी वाक्य और नयवाक्य दोनों अर्थ के सत्य स्वरूप को प्रकाशित करते हैं। एक अधिक धर्मों का प्रकाशक है और एक केवल एक धर्म का प्रकाशक है । इतने अंतर से सप्तभंगी के ज्ञान को प्रमा और नय के ज्ञान को अत्रमा नहीं मानना चाहिये। (नयो. पृ. ११३).
श्री उपाध्याय जी ने नयोपदेश में नयज्ञान को पहले कहे हेतुओं से अनुभयरूप अर्थात् न प्रभारूप, न अप्रमारूप कहा है । और उसके अनन्तर वे कहते हैं - इस प्रकार का निरूपण केवल मेरी बुद्धि का विलास नहीं है । तत्वार्थभाष्य में भी इस बात को कहा गया है। तत्त्वार्थभाष्य का वचन है -- ये नय अन्य शास्त्रों में जो ज्ञान प्रतिपादित है उन ज्ञानों के स्वरूप में नहीं है, और अपने तन्त्र के अनुसार अयथार्थ वस्तु का निरूपण करने वाले भी नहीं है। किन्तु जो पदार्थ ज्ञान का विषय है - ये उसके विलक्षण रूप से स्वरूप को प्रकाशित करनेवाले ज्ञान है ।
। यहाँ भी तत्वार्थभाष्य के कर्ता ने जो कहा है, उससे प्रतीत होता है - अन्य शास्त्रों में नयों का निरूपण नहीं है। इसलिये शास्त्रान्तर के प्रतिपाद्य अर्थ के रूप में इनको नहीं कहा जा सकता। न ही इन को स्वच्छन्द रूप से चलने वाले अयथार्थ ज्ञान के रूप में कहा जा सकता है । नय ज्ञान तो पदार्थ के ज्ञान है, पर वे इस प्रकार के ज्ञान हैं - जिनका स्वरूप विलक्षण है । भाष्यकार नय ज्ञानों को केवल विलक्षण ज्ञान कहते हैं। विलक्षण होने मात्र से उनको प्रमा और अप्रमा से भिन्न कहो का अभिप्राय नहीं हो सकता । प्रमात्मक होने पर भी उनको विलक्षण ज्ञान के रूप में कहा जा सकता है।
इस लक्षण में जो अर्थ श्रुत प्रमाण से प्रतिपादित है, उसके एक देश के प्रतिपादक ज्ञान को नय कहा गया है । इस दशा में नय, श्रुत प्रमाण के भेद प्रतीत होते हैं।
भट्ट अकलंकदेव ने लघीयस्त्रय की रचना की है – उसकी व्याख्या आचार्य प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र नाम से की है। वहाँ पर "श्रुतभेदा नया: सप्त...' इत्यादि कारिका में स्यात् रूप से सात नयों को श्रुत प्रमाण के भेद रूप में कहा गया है। यह