Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINISM
है-अर्थ, विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मों से युक्त होता है। बिना अपेक्षा के उसको किसी एक धर्म के साथ निश्चित नहीं किया जा सकता । यहाँ पर स्पष्ट रूप से अपेक्षा के द्वारा किसी एक धर्म के प्रकाशक वाक्य को नय कहा गया है। प्राचीन अर्वाचीन जैन ताकिकों के नय के विषय में जो वचन है उनसे अपेक्षा, नय ज्ञान के लिये प्राणरूप में प्रतीत होती है । जहाँ नयज्ञान है वहाँ अपरिहार्य रूप से अपेक्षा का होना आवश्यक है। स्वयं उपाध्याय जी कहते हैं ज्ञान स्वरूप नय अपेक्षात्मक शाब्दबोध के रूप में होता है।
स्पष्ट है, कोई भी अर्थ हो-उसमें अनन्त धर्म होते हैं । जब अपेक्षा के द्वारा किसी एक धर्म का ज्ञान होता है तब उसके अन्य विरोधी धर्मों का ज्ञान नहीं होता। सप्तभंगी में ज्ञान का यह स्वरूप बहुत स्पष्ट है । स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से जब किसी धर्मी अर्थ के सत्त्व धर्म का ज्ञान होता है तब प्रथम भंग होता है। इस प्रथम भंग में विरोधी असत्त्व का प्रकार रूप से भान नहीं होता । जब द्वितीय भंग के द्वारा पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव की अपेक्षा से असत्त्व धर्म का प्रकार रूप से ज्ञान होता है तब सत्व का ज्ञान नहीं होता।
अब तक जितना प्रतिपादन हुआ है उससे सिद्ध है सप्तभंगी के रूप में हो अथवा सप्तमंगी के बिना हो, जब भी नय ज्ञान होगा तब अपेक्षा अवश्य होगी ।
श्री वादी देवसूरि आचार्य ने स्पष्ट रूप से श्रुत प्रभाण को अनन्त धर्मात्मक अर्थ का प्रकाशक और उसके किसी एक धर्म के प्रकाशक शब्द-जन्य ज्ञान को नय कहा है। इस विषय में कुछ महान जैन ताकिकों के वचनों में भेद दिखाई देता है। उस पर अपनी अत्यंत अल्प शक्ति के अनुसार में विचार करता हूँ।
सन्मतिकार आचार्य सिद्धसेन कहते हैं-प्रत्येक अर्थ में तीनों कालों में 'उत्पाद व्यय और घरौव्य' होते हैं ।
इसकी व्याख्या में आचार्य श्री अभय देवसूरि कहते हैं-प्रत्येक अर्थ में उत्पाद आदि तीन कालों में है इसलिये प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायों से युक्त है। इस के अनन्तर सन्मतिसार एक समय में भी एक द्रव्य को अनेक प्रकार के उत्पाद आदि पर्यायों से युक्त कहते हैं । इस तत्व को दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करने के लिये कारिका ४२ वी में कहा है जब आहार करने पर अनेक अवयवों वाले शरीर की उत्पत्ति होती है तब मन और वचन की भी उत्पत्ति होती है। इसी काल में अनन्त परमाणुओं के साथ संयोग-विभाग की भी उत्पत्ति होती है। इस रीतिसे प्रत्येक अर्थ एक समय में अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होता है । इस तत्त्व को अन्य प्रकार से सिद्ध करने के लिये वे कहते है- जब भी शरीर आदि द्रव्य की उत्पत्ति होती है तभी त्रिभुवन के अन्तर्गत समस्त द्रव्यों के साथ साक्षात् अथवा परंपरा संबंध से संयोग उत्पन्न होते हैं। साधारण लोगों का प्रत्यक्ष यद्यपि