Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINISM
अन्य पक्ष के आचार्य कहते हैं - नैगम आदि जब परस्पर की अपेक्षा रखते हैं तब वे नय होते हैं । वे नय जब समस्त वस्तु के स्वरूप में ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, तब अज्ञात वस्तु के निश्चय का साधन होने के कारण, प्रमाण है । परन्तु जब नैगम आदि परस्पर की अपेक्षा नहीं रखते, तब वे नयाभास हो जाते हैं।
___ इन दो में से पहले पक्ष के अनुसार समस्त धर्म संपूर्ण धर्मी में पर्याप्ति संबंध में नहीं रहते । किन्तु प्रत्येक में पर्याप्ति संबंध से रहते हैं। इसलिये अनंत धर्मात्मक होने पर एक धर्म का ही निश्चय प्रमाण नहीं हो सकता । दो अर्थों में द्वित्व पर्याप्ति संबंध से रहता है। इन दो अर्थों में यदि एकत्व का ज्ञान हो तो वह प्रमाण नहीं है। दो में से प्रत्येक में एकत्व है । परन्तु दो में एकत्व नहीं है। प्रत्येक में एकत्व होने पर भी जब दो अर्थों का एक रूप में ज्ञान हो अर्थात् दोनों को एक समझ लया जाय तो वह ज्ञान प्रमाण नहीं होता, किन्तु मिथ्या ज्ञान होता है । इस विषय में उपाध्याय जी का जो वाक्य मुद्रित है वह इस प्रकार है - ‘अत्र प्रथमपक्षे सर्वेषां धर्माणां सर्वावच्छेदेन धमिणि न पर्याप्तिः किन्तु प्रत्येकमित्यनन्तधर्मात्मकेऽप्येकधर्मावधारणस्य द्वयोरेकत्वबुद्धिवन्नाप्रामाण्यम् ।'
यहाँपर मेरे विचार के अनुसार 'नाप्रामाण्यम्' पाठ नहीं होना चाहिये। परस्परकी अपेक्षा से रहित नैगम आदि को नयाभास सिद्ध करना है इसीलिये उनमें प्रामाण्य का निषेध अपरिहार्य रूप से आवश्यक है अतः 'न प्रामाण्यम्' पाठ चाहिये । प्रतीत होता है लेखक के प्रमाद से 'नाप्रामाण्यम्' पाठ हो गया है । 'नाप्रामाण्यम्' पाठ को लेकर किसी न किसी प्रकार से व्याख्या यदि की जाय तो वह सरलता के साथ साध्य की सिद्धि के लिये अपेक्षित हेतु के स्वरूप को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं बनती।
दूसरे पक्ष के अनुसार समस्त नयों से घटित सप्तभंगीरूप महावाक्य का एक देश नय सिद्ध हो सकता है। जहां एक नय के साथ दूसरे नय के वाक्य का संबंध हो वहाँ परस्पर की अपेक्षाही होने से कोई भी भंग यदि सप्तभंगी का भंग है, तो वह नय वाक्य हो जायगा। जो वाक्य सप्तभंगी के अंतर्गत नहीं हैं और एक एक धर्म के प्रतिपादक हैं
और अन्य धर्मों का निषेध नहीं करते वे नय नहीं कहे जा सकेंगे। इसलिये प्रमाण और नय आदि का लक्षण इस प्रकार करना होगा । सातों धर्म पर्याप्ति संबंध से धर्मों में रहते हैं- इस तत्व का प्रतिपादक वाक्य प्रमाण होगा। जो वाक्य सात धर्मों से यक्त धर्मी के किसी एक देश का पर्याप्ति के साथ ज्ञान करावेगा और उस धर्म से भिन्न धर्म का निषेध नहीं करेगा, वह नय होगा । और जो वाक्य एक धर्म का प्रतिपादन करता हुआ विरोधी धर्म का निषेध करेगा, वह दुर्नय होगा। (त.सू. १-६ त. वि. ग.दी. पृ. १५७१५८)
यहां पर जिन दो पक्षों का प्रतिपादन है उनमें से प्रथम पक्ष के अनुसार एक