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स्थाद्वाद-एक अनुचिन्तन
195 - इसी से वस्तु न केवल नित्य ही है, न केवल अनित्य ही है किन्तु नित्यानित्य है। द्रव्य रूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। पांतजल महाभाष्य के शब्दार्थमीमांसा प्रकरण में भी इसका समर्थन किया है -'द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या ।....प्राकृतिरन्या अन्या च भवति द्रव्यं पुनस्तदेव ।' ...अर्थात् द्रव्य नित्य है और प्राकृति अनित्य है । प्राकृति बदलती रहती है किन्तु द्रव्य वही रहता है। प्राकृति के नष्ट होने पर भी द्रव्य की सत्ता बनी रहती है। प्राय: अन्य दर्शन किसी वस्तु को नित्य और किसी को अनित्य मानते हैं । किन्तु प्रत्येक वस्तु के उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होने से प्रत्येक वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी । उत्पाद मोर व्यय अनित्यता के प्रतीक है और ध्रौव्य नित्यता का । अतः द्रव्यरूप से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है। यदि वस्तु को सर्वथा नित्य माना जाता है तो उसमें किसी भी प्रकार का परिणमन न होने से अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी और अर्थक्रिया शून्य होने से बंध मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी । यदि वस्तुं को सर्वथा क्षणिक माना जाता है तो पूर्वपर्याय का उत्तर पर्याय के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होने से भी बंध मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी । नित्यपक्ष में कर्तृत्व नहीं बनता तो अनित्य पक्ष में कर्ता एक और भोक्ता दूसरा होता है । अतः प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य है । इसका अनुभव हम स्वयं अपने में करते हैं । यद्यपि हम स्वयं बाल युवा वृद्ध आदि अवस्थाओं में बदल रहे हैं फिर भी हमारा एक ऐसा अस्तित्व तो है जो सब में अनुस्यूत है। उस अपने अस्तित्व की अपेक्षा हम नित्य हैं और बाल, वृद्ध आदि रूप परिवर्तनों की अपेक्षा अनित्य है। अतः यह शंका कि जो नित्य है वह अनित्य कैसे है, निर्मूल है ।
तथा प्रत्येक वस्तु द्रव्यरूप से एक है और पर्याय रूप से अनेक है । द्रव्य का लक्षण अन्वयरूप है और पर्याय का लक्षण व्यतिरेकरूप है, द्रव्य एक होता है पर्याय अनेक होते हैं। द्रव्य अनादि अनन्त होता है, पर्याय प्रतिक्षण नष्ट होती हैं। इस तरह द्रव्यरूप से एक होकर भी वस्तु पर्यायरूप से अनेक होने से एकानकात्मक हैं । एक ही मात्मा हर्षे विषाद सुख-दुःख आदि अनेक रूप से अनुभव में आता है।
तथा प्रत्येक वस्तु भेदाभेदात्मक है । द्रव्यरूप से अभेदात्मक है और पर्याय रूप से भेदात्मक है । प्राचार्य समन्तभद्रने कहा है -
द्रव्यपर्याययोरक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभेदतः । संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।।
आप्तमी.८-७१ ।. .