Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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प्रमाणों से नयों का भेद
ईश्वरचंद्र शर्मा
प्रमाणों से प्रमेय का ज्ञान होता है - इस वस्तु का निरूपण सभी दार्शनिकों ने किया है । प्रमाण कितने हैं ? और उनका स्वरूप क्या है ? इसका गंभीर विवेचन सभी दार्शनिकों ने युक्ति को लेकर किया है । परन्तु नयों के द्वारा प्रमेय का ज्ञान जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी अन्य शास्त्र में व्यवस्थित रूप से नहीं पाया जाता। जैनदर्शन के प्रधान आचार्य प्रमाण को ही नहीं, नयों को भी तत्त्वज्ञान का साधन मानते हैं । विक्रम की दूसरी शती में जिनकी संभावना की जाती है - उन वाचक उमास्वाति जी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - 'प्रमाणनयैरधिगमः ।' (१-६) जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार प्रमाणों का जो स्वरूप है, वह अनेक अंशों में न्याय आदि शास्त्रों के द्वारा प्रकाशित स्वरूप से भिन्न है । परन्तु नयों का स्वरूप अन्य दर्शन शास्त्रों में सर्वथा प्रकाशित नहीं है। अनेक जैन ताकिकों ने नयों के लक्षण प्रकाशित किये हैं। तत्त्वार्थसूत्र के भाष्य में कहते हैं - ' जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति - प्राप्नुवन्ति - कारयन्ति -साधयन्तिनिवर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति - व्यञ्जयन्ति - इति नयाः' (त. भा. १-३५)
- सिद्धिविनिश्चय में (१०-१) कहा है - नयते ज्ञानुर्मतं मतः। अनुयोगद्वारा की हरिभद्रसूरि की वृत्ति में - कहा है - नय: अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः एकांश: परिच्छेदः । (अनु. हरि. व. पृ. २७). Presented in the seminar on “ Jaina Logic and Philosophy" (Poona Univerity, 1975)