Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINIS
संजय का कथन कि मैं वस्तु को न सत् जानता हूं और न असत् जानता हूं तब कैसे उसे सत या असत् कहूं, अज्ञानवाद है । किन्तु स्याद्वाद कहता है कि वस्तु स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है, यह निणित तथ्य है इसमें न संशय को स्थान है और न अज्ञान को । अतः जिन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की आलोचना करते हुए उसमें जो विरोध, संशय आदि पाठ दोष आपादित किये हैं वे उस पर लाग नहीं होते। अन्य दर्शनों ने भी किसी न किसी रूप में अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है। अन्य दर्शनों में अनेकान्त
आचार्य अकलंक देव ने अपने तत्वार्थवातिक में (पृ. ३७) कहा है एक अनेकात्मक होता है इस में प्रतिवादियों को भी विवाद नहीं है । सांख्य मानता है - सत्व रज और तमोगुण की साम्यावस्था का नाम प्रधान है । उनके मतानुसार सत्त्वगुण उत्पाद और लाघव रूप है, रजोगुण शोष और ताप रूप है, तमोगुण आवरण और सादन रूप है। फिर भी उनका परस्पर में और प्रधान रूप से कोई विरोध नहीं है। वैशेषिक दर्शन में सामान्य को अनुवृत्ति, बुद्धिरूप और विशेष को व्यावृत्तिबुद्धिरूप कहा है किन्तु सामान्य ही विशेषरूप भी स्वीकार किया है जैसे पृथिवीत्व प्रादि सामान्यविशेष रूप हैं।
बौद्धमत में वर्णादिपरमाणुओं के समुदाय को रूपपरमाणु कहा है। उनके भिन्न क्षण होने पर भी परस्पर में तथा रूपात्मना कोई विरोध नहीं है । यदि कहोगे कि बाह्य रूप परमाणु नहीं है किन्तु तदाकार परिणत ज्ञान ही परमाणु नाम से कहा जाता है तो विज्ञानाद्वैत वाद में भी एक ही ज्ञान ग्राहकत्व, विषयाभास औरज्ञानत्व इन तीन शक्तियों का आधार स्वीकार करने से एक अनेकात्मक सिद्ध होता है।
तथा सभी दर्शनों में पूर्वकाल भावी और उत्तर काल भावी अवस्था विशेष की अपेक्षा एक ही कार्य भी माना गया है और कारण भी । अत: इस में कोई विरोध नहीं
स्याद्वाद पर आपत्ति
स्याद्वाद पर आज के दार्शनिक विद्वान 'यह आपत्ति करते हैं कि यह हमें किसी सत्यतक न पहुंचाकर एक उलझन में डाल देता है। उससे हमें अर्धसत्यों का ही वोध होता है और वह उन्हें पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा करता है आदि ।
। असल में स्याद्वाद तो अनेकान्तवाद को प्रकाशन करने की एक भाषा शैली है। मूल वस्तु है 'अनेकान्तदृष्टि' । प्रत्येक वस्तु को पूर्णरूप से समझने के लिये उसे विविध दृष्टिकोणों से देखना आवश्यक है, उसके विना पूर्ण वस्तु का ज्ञान संभव नहीं है । और जबतक पूर्णवस्तु का यथार्थ ज्ञान न हो तबतक सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति नहीं हो सकती