Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna

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Page 216
________________ स्याद्वाद - एक अनुचिन्तन वक्तव्य और योग का पदार्थवाद सदसदवक्तव्य कोटि में गर्भित है । इस तरह सप्तभंगी के एक एक भंग में एक एक दर्शन के मन्तव्य संग्रहीत करके उनके एकान्तवाद का निरसन किया है । 201 ऊपर कहा है कि एकान्तवाद के विना अनेकान्तवाद नहीं होता । एकान्तों के सापेक्ष समूह का नाम अनेकान्त है । अनेकान्त प्रमाण का विषय है और एकान्त नय का विषय है । सम्पूर्ण अर्थ को ग्रहण करनेवाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और एकांशग्राही शान को नय कहते हैं । Y वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक होती है' ४ श्रतः उसके द्रव्यांश या सामान्य का ग्राही ज्ञान द्रव्यार्थिक नय है और विशेष या पर्याय का ग्राही ज्ञान पर्यायार्थिक नय है । ये दोनों मूल नय हैं। इनके नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द मरुढ तथा एवंभूत ये सात भेद हैं । १५ ये सभी नय अपने अपने विषय की मर्यादा में रहते हुए सत्य हैं किन्तु यदि ये अपने ही विषय को सत्य और अन्य नयों के विषय को मिथ्या कहते हैं तो ये झूठे हैं । अतः अनेकान्तदर्शी अमुक नय सच्च्चे हैं, झूठे हैं ऐसा भेद नहीं करता । अमुक नय अतः सवनय निरपेक्ष अवस्था में दुर्नय होते हैं। क्योंकि किसी एक नय को ही सत्य मानने पर संसार मोक्ष नहीं बनता । द्रव्यार्थिक या द्रव्यास्तिक को ही या पर्यायार्थिक पर्यायास्तिक को ही सत्य मानने पर संसार नहीं बनता क्योंकि उनमें एक सर्वथा नित्यवादी है तो दूसरा सर्वथा अनित्यवादी है । दोनों ही पक्षों में कर्मबन्ध सभव नहीं है और बन्ध के विना मोक्ष की अभिलाषा और मोक्ष नहीं है । द्रव्यास्तिक नय की दृष्टि से आत्मा है वह कर्म बांधता है और उसका फल भोगता है । किन्तु पर्यायास्तिक की दृष्टि से प्रतिक्षण नईनई पर्याय उत्पन्न होने से अन्य बांधता है अन्य भोगता है । ये दोनों ही दृष्टियां सापेक्ष होने पर ही यथार्थ हैं । श्रतः सांख्यदर्शन द्रव्यास्तिक का वक्तव्य है और बौद्ध दर्शन पर्यायार्थिक नय का वक्तव्य है । यद्यपि कणाद दर्शन में दोनों नयों से प्ररूपणा मिलती है किन्तु उनमें सापेक्षता नहीं है क्योंकि वैशेषिक दर्शन आत्मा परमाणु आदि को सर्वथा नित्य ही मानता है और घट पट, आदि को सर्वथा अनित्य ही मानता है । किन्तु जैन दर्शन प्रकाश से लेकर दीपक तक को समस्वभाव मानता है । द्रव्यरूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य । इस तरह सप्तभंग और नय की अपेक्षा स्याद्वाद का निरूपण जैन दर्शन के साहित्य में विस्तार से मिलता है । यह एक सत्य के निरूपण की विशिष्ट सरणि है। उसके विना श्रनेकात्मात्मक तत्व का प्रकाशन संभव नहीं है । अनेकान्त संशयवाद नहीं है यह अनेकान्तवाद या स्याद्वाद न तो अज्ञानवाद है और न संशयवाद है ।

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