Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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स्यादाद - एक अनुचिन्तन
कैलाशचन्द्र शास्त्री
जिनागम में कहा है कि भगवान् महावीर ने अपनी प्रथम धर्मदेशना में जो प्रथम वाक्य कहा वह है-'उपन्नेइ वा विगमेइ वा, धुवेइ वा' वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, रुव होती है । उत्पत्ति विनाश और धौव परस्पर में विरोधी धर्म हैं। अतः एक वस्तु में इन तीनों का होना कालभेद से संमत भी हो सकता है। किन्तु एक ही समय में एक ही वस्तु में ये तीनों होते हैं। उनके बिना वस्तु का अस्तित्व ही संभव नहीं है। सत्का लक्षण ही उत्पाद व्यय ध्रौव्य है। कहा है – 'उत्पादव्ययौव्ययुक्तं सत् - तत्त्वार्थ सूत्र । उत्पाद व्यय के विना नहीं होता । व्यय उत्पाद के विना नहीं होता, उत्पाद और व्यय ध्रौव्य के बिना नहीं होते, और ध्रौव्य उत्पादव्यय के बिना नहीं होता। तथा जो उत्पाद है वही व्यय है, जो व्यय है वही उत्पाद है जो उत्पाद और व्यय है वही ध्रौव्य है। जो ध्रौव्य है वही उत्पाद और व्यय है। इसका स्पष्टीकरण -
जो घट का उत्पाद है वही मिट्टी के पिण्ड का विनाश है क्योंकि भाव भावान्तर के अभावरूप होता है। जो मिट्टी के पिण्ड का विनाश है वही घड़े का उत्पाद है क्योंकि प्रभाव भावान्तर के भावरूप है। और जो घट का उत्पाद और पिण्ड का विनाश है वही मिट्टी की स्थिति है क्योंकि व्यतिरेक के द्वारा ही अन्वय का प्रकाशन होता है ।
Presented in the Seminar on “ Jaina Logic and Philosophy ” (Poona University 1970). J-13