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२५. सव्वे सरा नियट्टंति, तक्का जत्थन विज्जह मई तस्थ न गहिया ... उवमा न विज्जई अपयस्स पयं नत्थि । आचारांग १।५।६।१७१
२६. पण्णवणिज्जा भावा अनंतभागो दु अणमिलप्पानं । पण वणिज्जाणं पुण अनंतभागो सुदनिबद्धो ॥
STUDIES IN JAINISM
गोम्मटसार, जीव ३३४
२७. ऐसा ही प्रयास डा. संगमलाल पाण्डेने पूना विश्वविद्यालय में आयोजित इस गोष्ठी में भी किया है ।
चर्चा
एक सवाल :- सर्वज्ञ के ज्ञान को सापेक्ष कैसे माना जाए ?
सागरमल जैन :- जहाँ तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत् के ज्ञान का प्रश्न है वह निश्चित रूप से सापेक्ष है । तथापि सर्वज्ञ का आत्मजगत्का ज्ञान निरपेक्ष है । कुंदकुंद ने भी वस्तु जगत् का और ग्रात्मजगत् का ज्ञान इसमें फर्क किया है ।
दूसरा सवाल :- मानवी ज्ञान का प्रमाण अप्रामाण्य किस प्रकार है ? सागरमल जैन :- मानवी ज्ञान सापेक्षतया प्रमाण अप्रमाण है ।
पं. रामचन्द्र जोशी :- अगर मानवी ज्ञान (निरपेक्षतया ) प्रमाण नहीं है तो प्रमाणव्यवस्था किस लिए ?
सागरमल जैन :- प्रमाण्यव्यवस्था ( निरपेक्षतया ) प्रमाणित है; तथापि प्रमाण व्यवस्था से प्रमाणित ज्ञान सापेक्षतया प्रमाणित है, निरपेक्षतया नहीं ।