Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINISM
सांकेतिक रूप
- उदाहरण जैसे-रंग की वृष्टि से यह कमीज नीला है रंग की दृष्टि से यह कमीज पीला नहीं है।
अथवा अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में चेतन है। अपने स्वरूप की दृष्टि से आत्मा में अचेतन नहीं है।
अथवा उपादान की दृष्टि से यह घड़ा मट्टी का है। उपादान की दृष्टि से यह घड़ा स्वर्ण का
नहीं है । (४) अ१०उ है
(४) जब प्रतिपादित कथन देश या काल या अ२ - उ नहीं है
दोनों के सम्बन्ध में हो तब देश काल आदि की अपेक्षा को बदलकर प्रथम भंग में प्रतिपादित कथन का निषेध कर लेना। जैसे - २७ नवम्बर की अपेक्षा से मैं यहां पर हूं। २० नवम्बर की अपेक्षा
से मैं यहां पर नहीं था। द्वितीय भंग के उपरोक्त चारों रूपों में प्रथम और द्वितीय रूप में बहुत अधिक मौलिक भेद नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जहां प्रथम रूप में एक ही धर्म का प्रथम भंग में विधान और दूसरे भंग में निषेध होता है, वहीं दूसरे रूप में दोनों भंगों में अलग अलग रूप में दो विरुद्ध धर्मों का विधान होता है। प्रथम रूप की आवश्यकता तब होती है जब वस्तु में एक ही गुण अपेक्षा भेद से कभी उपस्थित रहे और कभी उपस्थित नहीं रहे । इस रूप के लिए वस्तु में दो विरुद्ध धर्मों के युगल क होना जरूरी नहीं है, जबकि दूसरे रूप का प्रस्तुतीकरण केवल उसी स्थिति में सम्भव होता है, जबकि वस्तु में धर्म विरुद्ध युगल हो । तीसरा रूप तब बनता है, जबकि उस वस्तु में प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध धर्म की उपस्थिति ही न हो । चतुर्थ रूप की आवश्यकता तब होती है, जबकि हमारे प्रतिपादन में विधेय का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हो । द्वितीय भंग के पूर्वोक्त रूपों में प्रथम रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्ग (विधेय) वही रहता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है। द्वितीय रूप में अपेक्षा बदलती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध धर्म (विधेय का व्याघातक पद) होता है और क्रियापद विधानात्मक