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स्याद्वाद : एक चिन्तन
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होता है। तृतीय रूप से अपेक्षा वही रहती है, धर्म (विधेय) के स्थान पर उसका विरुद्ध या विपरीत रखा जाता है और क्रियापद निषेधात्मक होता है तथा अन्तिम चतुर्थ रूप में अपेक्षा बदलती है और प्रतिपादित कथन का निषेध कर दिया जाता है ।
- सप्तगी का तीसरा मौलिक भंग अवक्तव्य है। अत: यह विचारणीय है कि इस भंग की योजना का उद्देश्य क्या है ? सामान्यतया यह माना जाता है कि वस्तु में एक ही समय में रहे हुए सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि विरुद्ध धर्मों का युगपद् अर्थात् एकसाथ प्रतिपादित करने वाला ऐसा कोई शब्द नहीं है । अतः विरुद्ध धर्मों की एकसाथ अभिव्यक्ति की शाब्दिक असमर्थता के कारण अवक्तव्य भग की योजना की गई है, किन्तु अवक्तव्य का यह अर्थ उसका एकमात्र अर्थ नहीं है । यदि हम अवक्तव्य शब्द पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उसके अर्थ में एक विकास देखा जाता है। डा. पद्मा राजे ने अवक्तव्य के अर्थ के विकास की दृष्टि से चार अवस्थाओं का निर्देश किया है(१) पहला वेदकालीन निषेधात्मक दृष्टिकोण, जिसमें विश्व कारण
की खोज करते हुए ऋषि उस कारण तत्व को न सत् और न असत्
कहकर विवेचित करता है, यहां दोनों पक्षों का निषेध है। ( २ ) दूसरा औपनिषदिक विधानात्मक दृष्टिकोण जिसमें सत्, असत्
आदि विरोधी तत्त्वों में समन्वय देखा जाता है । जैसे - 'तदेजति तन्नेजति', 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' 'सदसढेरण्यम्' आदि ।
यहाँ दोनों पक्षों की स्वीकृति है ।। ( ३ ) तीसरा दृष्टिकोण जिसमें तत्त्व को स्वरूपतः अव्यपदेश्य या अनिर्वचनीय
माना या है, यह दृष्टिकोण भी उपनिषदों में ही मिलता है जैसे 'यतो वाचो निवर्तन्ते' 'यद्वाचानभ्युदितम्' 'नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो..' आदि । बुद्ध के अव्याकृतवाद एवं शून्यवाद की चतुष्टकोटि विनिर्मुक्त तत्त्व की धारणा में भी बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण का प्रभाव
देखा जा सकता है । ( ४ ) चौथा दृष्टिकोण जैन न्याय में सापेक्षिक अवक्तव्यता या सापेक्षिक
अनिर्वचनीयता के रूप में विकसित हुआ। सामान्यतया अवक्तव्य के निम्न अर्थ हो सकते हैं - (१) सत् व असत् दोनों का निषेध करना । (२) सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना । ( ३ ) सत्, असत्, सत्-असत् (उभय) और न सत् न असत् (अनुभय)
चारों का निषेध करना ।