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STUDIES IN JAINISM
भंगों के आगमिक रूप भंगों के सांकेतिक रूप
ठोस उदाहरण
की अपेक्षा से कथन करते हैं तो आत्मा
नित्य नहीं है। स्थात् अवक्तव्य (अ. अ२)य उ यदि द्रव्य और पर्याय दोनों ही
अवक्तव्य है अपेक्षाओंसे एक साथ कथन करते
हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। (क्योंकि दो भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से दो अलग अलग कथन हो सकते
हैं किन्तु एक कथन नहीं हो सकता)। अथवा
(अ )य उ यदि एकसाथ आत्म की अनंत अवक्तव्य है अपेक्षाओं की दृष्टि से कथन करते हैं
तो आत्मा अवक्तव्य है। (स्याद् अस्ति च अ उ वि है. यदि द्रव्य की अपेक्षा से कथन करते अवक्तव्यश्च (अ )य उ है तो आत्मा नित्य है किन्तु अवक्तव्य है यदि आत्मा की अनन्त अपेक्षाओं से
एक साथ कथन करते हैं तो आत्मा
अवक्तव्य है। स्याद् नास्ति च अ२० उ वि नहीं है यदि पर्याय की अपेक्षा से कथन करते भवक्तव्यश्च
.(अ )य उ हैं तो आत्मा नित्य नहीं है किन्तु अवक्तव्य है . यदि आत्मा की अनन्त अपेक्षाभों की
दृष्टि से कथन करते हैं तो आत्मा
अवक्तव्य है । स्याद् अस्तिच, नास्तिच, अउ वि है. यदि द्रव्य दृष्टि से कथन करते हैं तो अवक्तव्यश्च
अ२ उ वि नहीं है आत्मा नित्य है और यदि पर्याय दृष्टि .(अ )य उ से कथन करते हैं तो आत्मा नित्य अवक्तव्य है नहीं है किन्तु यदि आत्मा की अनन्त
अपेक्षाओं की दृष्टि से कथन करते
हैं तो आत्मा अवक्तव्य है। सप्तभंगी के प्रस्तुत सांकेतिक रूप में हमने केवल दो अपेक्षाओं का उल्लेख कर पाये हैं किन्तु जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ऐसी चार अपेक्षाएं मानी है, उसमें भी भाव-अपेक्षा व्यापक है। उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं