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STUDIES IN JAINISM
लंस्कार, अनन्त वीर्य की सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रमाणसंग्रह भाष्य, वादिराज के न्यायविनिश्चय विवरण, प्रमाणनिर्णय और माणिक्यनन्दि का परीक्षामुख इस काल की अनूठी तार्किक रचनाएँ है । ३. अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्रकाल ___ यह काल जैन न्याय के विकास का अन्तिम काल है। इस काल में मौलिक ग्रन्थों के निर्माण की क्षमता कम हो गयी और व्याख्या ग्रंथों का निर्माण हआ। प्रभाचंद्र ने इस काल में अपने पूर्वज आचार्यों का अनुगमन करते हुए जैन न्याय पर जो विशालकाय व्याख्याग्रंथ लिखे है वैसे व्याख्याग्रन्थ उनके बाद नहीं लिखे गये। अकलङक के लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है और माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर प्रमेयकमलमार्तण्ड नाम की प्रमेय बहुल एवं तर्कपूर्ण टीकाएँ प्रभाचन्द्र की अमोघ तर्कणा और उज्ज्वल यश को प्रस्तुत करती है। विद्वज्जगत में इन टीकाओं का बहु आदर है । अभय देव की सन्मतितटीका और वादि. देवसूरि का स्याद्वादरत्नाकर (प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार टीका) ये दो ही टीकाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं । किन्तु ये प्रभाचन्द्र की तर्क-पद्धति से विशेष प्रभावित हैं ।
__ इस काल में लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, देवसूरि, अभयचन्द्र, हेमचन्द्र, मल्लिषेण सूरि, आशाधर, भावसेन विद्य, अजित सेन, अभिनव धर्मभूषण, चारुकीर्ति, विमलदास, नरेंद्रसेन, यशोविजय आदि ताकिकों ने अपनी व्याख्या या मूल रचनाओं द्वारा जैन न्याय को संक्षेप एवं सरलभाषा में प्रस्तुत किया है । इस काल की रचनाओं में लघु अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला (परीक्षामुखवृत्ति), अभयदेव की संमतितर्कटीका, देव सूरिका प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार और उसकी स्वोपज्ञ टीका स्याद्वादरत्नाकर, अभयचन्द्र की लघीयस्त्रयतात्पर्य वृत्ति, हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा मल्लिषेण सरि की स्यादवादमंजरी, आशाधर का प्रमेयरत्नाकर, भावमेन का विश्वतत्त्वप्रकाश अजित सेन की चायनणिदीपिका, चारुकीति की अर्यप्रकाशिका और प्रमेवरत्नालंकार विमलदास को सप्तभडिगतरडिगी, नरेन्द्र सेन की प्रमाणप्रमेय कलिका और यशोविजय के अष्टसहस्री-विवरण, ज्ञान बिन्दु और जन तक भाषा विशेष उल्लेख योग्य जैन न्याय ग्रन्थ हैं। अन्तिम तीन ताकिकों ने अपने न्याय ग्रंथोंमें नव्यन्यायशैली को भी अपनाया है । इसके बाद जैन न्याय की धारा प्रायः बन्द सी हो गयी और उसमें आगे कोई प्रगति नहीं हुई।
टिप्पणियाँ
१. समन्तभद्र, स्ववम्भू , श्लोक २ २. जिनसेन,, महापुराण, १२-९५: विमल सरि, पदमचरि. ३-६८ २ ऋग्द .२-३३-०७