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STUDIES IN JAINISM
कुमारी के उस घड़े को मिटवाकर राजकुमार के लिए मुकुट बनवाने का विचार किया और सुनार को वह घड़ा दे दिया । सुनार उसे तोड़कर जब मुकुट बनाता है तो राजकुमारी को घड़े के नाश से दुःख होता है और राजकुमार को मुकुट बनने से प्रसन्नता होती है तथा राजा को न दुःख होता है और न हर्ष-वह मध्यस्थ रहता है। यदि सोने में नाश, उत्पाद और ध्रुवत्व ये तीन परिणाम न हों तो उपर्युक्त विषाद, हर्ष और माध्यस्थ्य ये तीन भाव उत्पन्न नहीं हो सकते । घट की इच्छुक राजकुमारी को घटके नाश में विषाद, मुकुट के अभिलाषी राजकुमार को हर्ष और स्वर्ण के आकांक्षी राजा को माध्यस्थ्य ( न विषाद, न हर्ष) ये तीन भाव तभी हो सकते हैं, जब स्वर्ण में उक्त तीन परिणाम ( नाश, उत्पाद और स्थिति) हों। इससे स्पष्ट है कि वस्तु अनेकान्त है । स्याद्वाद उक्त तीनों परिणामों (स्वभावों) की व्यवस्था यों करता है - सुवर्ण सामान्य ( द्रव्य ) रूप से न उत्पन्न होता है और न नष्ट - स्थिर रहता है, किन्तु विशेष (पर्याय - घट, मुकुट) रूप से नष्ट होता है और उत्पन्न होता है। इस प्रकार वस्तु में अनेक धर्मो कर सद्भाव अनेकान्त है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है ।
स्याद्वाद और अनेकान्तवाद
यद्यपि स्याद्वाद और अनेकान्तवाद को पर्याय समझा अथवा कहा जाता है, पर वह सामान्य अथवा उपचार है । जैसे विषयी (ज्ञान) के धर्म ( जानने) का विषय (ज्ञेय - घटादि) में उपचार करके विषय (ज्ञेय - घटादि) को भी विषयी ( ज्ञान - घट - ज्ञान, पट- ज्ञान आदि ) कह दिया जाता है, उसी तरह स्याद्वाद द्वारा कहा जाने से अनेकान्तवाद को स्याद्वाद या उसका पर्याय कह दिया जाता है । यथार्थ में सूक्ष्म ध्यान देने पर उनमें अन्तर प्रतीत होता है । वह अन्तर है व्यवस्थापक और व्यवस्थाप्य अथवा वाचक और वाच्य का । स्याद्वाद व्यवस्थापक अथवा वाचक है और अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य अथवा वाच्य है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय में ज्ञान - ज्ञेय सम्बन्ध या प्रमाणप्रमेय में प्रमाण- प्रमेय सम्बन्ध की तरह स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में व्यवस्थापक-व्यवस्थाप्य अथवा वाचक - वाच्य का सम्बन्ध विद्यमान है । अनेकान्तरूप वस्तु की व्यवस्था या कथनी स्याद्वादद्वारा की जाती है । अकलङकदेव ' 3 ने स्पष्ट लिखा है कि 'अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्थाद्वाद:' अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन स्याद्वाद है और कही जानेवाली वस्तु अनेकान्त है ।
स्याद्वाद और सप्तभंगी
स्याद्वाद जब अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन करता है तो उसके कथन के सात तरीके हैं । इन सात तरीकों को जैन दर्शन में 'सप्तभंगी' प्रक्रिया (पद्धति) कहा गया है । अनेकान्त-वस्तुके कथन के अधिक-से-अधिक संभाव्य तरीके (प्रकार) सात हैं । धर्मभूषण ने सप्तभंगी की व्युत्पत्ति देते हुए लिखा है 'सप्तानां भंगानां समाहारः