Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINISM
क्या अर्थ है, यह स्पष्ट हो जाता । स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जो भान्ति उत्पन्न होती है, उसका मूल कारण उसे तिडन्नत पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्द, अमृतचन्द्र, मल्लिषेण आदि सभी जैन आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात् यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ सम्बन्धित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है। इसी प्रकार पंचास्तिकाय की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि “स्यात्" एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है। २ मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है । ३ इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर, अनेकान्तिक किन्तु निश्चयात्मक अर्थ का द्योतक है । मात्र इतना ही नहीं जैन दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सजग थे कि आलोचक या जन साधारण के द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात शब्द के साथ "एक" शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे “स्यादस्त्येव घट:" अर्थात् किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है। यह स्पष्ट है कि “एव" शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है । "स्यात्" तथा "एव" शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है । वस्तुतः इस प्रयोग में "एवं" शब्द स्यात् शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और “स्यात्" शब्द "एक" शब्द की निरपेक्षता एवं एकान्तता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार वे दोनों मिलकर कथित वस्तु धर्म की सीमा नियत करते हुए सापेक्ष किन्तु निश्चित ज्ञान प्रस्तुत करते हैं। अतः स्याद्वाद को संशयवाद या सम्भावनावाद नहीं कहा जा सकता । “वाद" शब्द का अर्थ कथन विधि है । इस प्रकार स्याद्वाद सापेक्षिक कथन पद्धति या सापेक्षित निर्णय पद्धति का सूचक है । वह एक ऐसा सिद्धान्त है, जो वस्तुतत्त्व का विविध पहलुओं या विविध आयामों से विश्लेषण करता है और अपने उन विश्लेषित विविध निर्णयों को इस प्रकार की भाषा में प्रस्तुत करता है कि वे अपने पक्ष की स्थापना करते हुए भी वस्तुतत्त्व में निहित अन्य "अनुक्त" अनेकानेक धर्मों एवं सम्भावनाओं (पर्यायों) का निषेध न करें। वस्तुत: स्याद्वाद हमारे निर्णयों एवं तज्जनित कथनों को प्रस्तुत करने का एक निर्दोष एवं अहिंसक तरीका है। वह अविरोध पूर्वक कथन की एक शैली है । उसका प्रत्येक भंग अनेकान्तिक ढग से एकान्तिक कथन करता है, जिसमें वक्ता अपनी बात इस ढंग से कहता है कि उसका वह कथन अपने प्रतिपक्षी कथनों का पूर्ण निवेधक न बने । संक्षेप में स्याद्वावाद अपने समग्र रूप में अनेकान्त है और प्रत्येक भंग की दृष्टि से सम्यक् एकान्त भी है । सप्तभंगी अनन्त धर्मात्मक वस्तुतत्व के सम्बन्ध में एक ऐसी पद्धति या वाक्य योजना है, जो उसमें अनुक्त धर्मों की सम्भावना का निषेध नहीं करते हुए