Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna
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STUDIES IN JAINISM
हुआ दोष शून्यवादी और स्याद्वादी दोनों ही देखते हैं । इस एकान्त के दोष से बचने की तत्परता में शून्यवाद के द्वारा प्रस्तुत शून्यता - शून्यता की धारणा और स्याद्वाद के द्वारा प्रस्तुत अनेकान्त, अनेकान्तता की धारणा भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है। किन्तु जहां शून्यवादी उस दोष के भय से एकान्त को अस्वीकार करता है, वहीं स्याद्वादी, उसके आगे स्थात् शब्द रखकर उस सदोष एकान्त को निर्दोष बना देता है । दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है तो वह अपनी निषेधात्मक और विधानात्मक दृष्टियों का ही है ! शून्यवाद का वस्तुतत्त्व जहां चतुष्कोटिविनिर्मवत शून्य है, वहीं जैन दर्शन का वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो एक ही है । इन दोनों की विभिन्नता तो उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो कि वैचारिक आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिणाम शून्यवाद था तो महावीर के विधानात्मक दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद । इस सम्बन्ध में आदरणीय दलसुख भाई का लेख 'शुन्यवाद और स्याद्वाद' विशेष रूप से द्रष्टव्य है । स्याद्वाद का लक्ष्य - एक व्यापक समन्वयात्मक दृष्टि का विकास
भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर था । जैन आगमों के अनुसार कुछ समय ३६३ और बौद्ध आगमों के अनुसार ६२ दार्शनिक मत प्रचलित थे । वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके । भगवान् बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवादपराङ्मुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूं। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। अतः निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े। १९ बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी परस्पर विरोधी दार्शनिक दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक मान्यता के साथ नहीं बांधा । वे कहते हैं पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता । २० बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक वाद-विवाद निर्वाण मार्ग साधक के कार्य नहीं है । अनासक्त मुक्त पुरुष के पास विवाद रूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता । २१ इसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है जो व्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार चक्र में धूमते रहते हैं । २२ इस प्रकार भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जन मानस को मुक्त करना चाहते हैं, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहां बुद्ध इन विवादों से बचने