Book Title: Studies in Jainism
Author(s): M P Marathe, Meena A Kelkar, P P Gokhle
Publisher: Indian Philosophical Quarterly Publication Puna

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Page 151
________________ 136 STUDIES IN JAINISM ३. किसी अपेक्षा से वस्तु उभय ही है । ४. किसी अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य ही है । ५. किसी अपेक्षा से वस्तु सत् और अवक्तव्य ही है । ६. किसी अपेक्षा से वस्तु असत् और अवक्तव्य ही है ७. किसी अपेक्षा से वस्तु सत् और असत् तथा अवक्तव्य ही है। उपर्युक्त प्रश्नों के ये सात उत्तर हैं। प्रथम उत्तर में कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु स्वरूप की अपेक्षा से सत् ही है, द्वितीय उत्तर में बताया है कि पररूप की अपेक्षा से वह असत् ही है । इसी प्रकार तीसरे आदि उत्तरों में कहा है कि दोनों (स्वरूप-पररूप) की क्रम से अपेक्षा करने पर उभय ही है, दोनों की युगपद् अपेक्षा होने पर उन्हें एक साथ कह न सकने से अवक्तव्य ही है, स्वरूप और युगपद् दोनों की दृष्टि से सत् और अवक्तव्य ही है, पररूप और युगपद् दोनों की विवक्षा से असत और अवक्तव्य ही है, तथा क्रम और युगपद् दोनों की अपेक्षा से सत्-असत् और अवक्तव्य ही है। इन सात उत्तरों में प्रथम के चार उत्तर सहजगम्य हैं और विना अधिक आयास के जाने जा सकते हैं। किन्तु अगले तीन उत्तर कुछ कटिन एवं अधिक आयास से गम्य हैं । पर वे सम्भावना की अधिकता पर आधृत होने से निरूपित हैं । इन सात उत्तरों से अधिक अपुनरुक्त उत्तर सम्भव नहीं है । जो भी उत्तर होंगे वे पुनरुक्त होंगे। इनमें पहला, १८ दूसरा और चौथा ये तीन उत्तर असंयोगी होने से मौलिक है । तीसरा, पांचवां और छठा ये तीन उत्तर दो-दो के संयोगसे होने से द्विसंयोगी और सातवाँ तीनों के संयोगसे होने से त्रिसंयोगी उत्तर है । ये सात उत्तर मूल तीन उत्तरों पर उसी प्रकार संभवित है, जिस प्रकार नमक, मिर्च और खटाई इन तीन मूल स्वादों के सम्भाव्य (अमिथ और मिश्र) स्वाद सात ही हो सकते हैं - १ नमक, २ मिर्च, ३ खटाई (ये तीन अमिश्र), ४ नमक मिर्च, ५ नमक-खटाई और ६ मिर्च-खटाई ये तीन दो-दो के संयोगजन्य मिश्र, तथा ७ नमक-मिर्च-खटाई यह, तीनों के संयोग से निष्पन्न मिश्र । सप्तभंगी के इस विवेचन में कितनी सूक्ष्म गहराई और बारीकी का चिन्तन निहित है, यह ध्यातव्य है । उक्त सप्तभंगी के प्रत्येक उत्तर वाक्य में जहां 'किसी अपेक्षा' (स्यात्) शब्द का प्रयोग है वहाँ 'ही' (एवकार) का भी प्रयोग किया गया है । उसका अभिप्राय है कि उस अपेक्षा से वह धर्म वस्तु में निश्चित तोरेपर विद्यमान है । उसकी विद्यमानता में शायद या सन्देह की जरा भी गुंजाइश नहीं है । जैन दार्शनिकों ने इसी आशय को अभिव्यक्त करने के लिए वाक्यों में 'स्यात्' निपात और 'एवकार' दोनों शब्दोंका प्रयोग विहित किया है। भले ही वक्ता वाक्यों में उनका प्रयोग करें, चाहे न करें, पर उनके प्रयोग का अभिप्राय वक्ताओं का अवश्य रहता है ।

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