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आयेगा। जबकि जो चेतन है उसे अचेतन और जो अचेतन है उसे चेतन नहीं कहा जा सकता। सत्य यह है कि जिन धर्मों का वस्तु तत्त्व में अत्यन्ताभाव है उन धर्मों का उसमें उपस्थित रहना कथमपि सम्भव नहीं है। वस्तुत: चेतनत्व और अचेतनत्व दो परस्पर विरोधी धर्म हैं और नित्यत्व और अनित्यत्व परस्पर विरोधी नहीं अपितु विरोधी से प्रतीत होने वाले धर्म हैं। उनकी सत्ता द्रव्य में एक साथ पायी जाती है। जैन दर्शन में नित्यत्व की व्याख्या है- पूर्व और अपर परिणाम में रहने वाली साधारण रूप से एकस्वरूपता, न कि जैसा वेदान्ती और अन्य दार्शनिक मानते हैं- न नष्ट होने वाला, न ही उत्पन्न होने वाला एवं स्थिर स्वभाव वाला ही कूटस्थ नित्य है। वस्तु में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य या नित्यता एकसाथ रहते हैं जो एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते और जो जिससे अविनाभाव'४ सम्बन्ध रखता है उन दोनों का परस्पर विरोध नहीं रहता। अलग-अलग शब्दों का व्यवहार विवक्षा के कारण होता है। ध्रौव्य में उत्तररूप के प्राधान्य की अपेक्षा से उत्पाद का, और पूर्वरूप के निवृत्ति के प्राधान्य की अपेक्षा से व्यय का तथा उन दोनों में ही अन्वय के प्राधान्य की अपेक्षा से ध्रौव्य का व्यपदेश होता है। एकत्व और अनेकत्व अपेक्षा भेद से हैं।
इस प्रकार अनेकान्तवाद सत्य और अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित भगवान् महावीर का सार्वभौमिक सिद्धान्त है जो सर्व धर्म समभाव के चिन्तन से अनुप्राणित है। उसमें लोकहित और लोकसंग्रह की भावना गर्भित है। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक
और आर्थिक विषमताओं को दूर करने का अमोघ अस्त्र है। समन्वयवादिता के आधार पर सर्वथा एकान्तवादिओं को एक प्लेटफार्म पर ससम्मान बैठने का उपक्रम है। यह अनेकान्तवाद ही जैन दर्शन की मूल दृष्टि है।
___ अब हम देखेंगे कि अनेकान्तवाद का प्रयोग क्या मूल्यपरक शिक्षा के लिए एक यन्त्र के रूप में हो सकता है?१. धार्मिक शिक्षा में
'धारयति इति धर्मः' अर्थात् जो सारी प्रजा को धारण करता है वह धर्म है। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को आत्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हआ है किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति के कारण धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी की गई। विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भली-भाँति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये हैं। १५ आश्चर्य तो तब होता है जब उन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्ति आज हो रही है। आज धर्म के नाम पर दमन, अत्याचार, नृशंसता एवं रक्तप्लावन की घटनाएँ आम हो गई हैं। शान्ति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग-विद्वेष का कारण हो गया है। धर्म के नाम पर धर्मान्धों की युद्धों, रक्तपातों एवं..
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