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प्रमाणित भी करते थे, तब लोग जान लेते थे कि आप केवल पढ़ाई करनेवाले नहीं अपितु अत्यंत परिश्रमी भी हैं। यह थी, आपकी अभ्यास काल की सहज सिद्धियाँ। विद्वता : यद्यपि ज्ञान व्यसनियों का अभ्यासकाल जीवनकाल के साथ ही समाप्त होता है, फिर भी नियत अभ्यास के बाद व्यक्ति विद्वान् बन जाता है। आपने अत्यंत लघुवय में नियत अभ्यास को पूर्ण कर दिया और अनुपम विद्वान् बन गये।
मानव की विद्वत्ता केवल एक क्षेत्र में पर्याप्त नहीं होती। गहन तर्क को समझनेवाला विद्वान् कभी अध्यापन के क्षेत्र में अशक्त भी होता है। स्थूलपृथक्करण करके समझानेवाला व्यक्ति कभी गहन चीज समझने में भी नाकामयाब होता है। कभी लेखक काव्यक्षेत्र से दूर भागता मालूम पढ़ता है। मनोहर कवि कभी वक्ता के रूप में असफल देखा जाता है। अर्थात् 'विद्वत्ता' शब्द बहुत व्यापक है। ऐसी 'व्यापक विद्वत्ता' प्राप्त होना जगत् का चमत्कार गिना जाता है। आचार्यवर्य की विद्वत्ता व्यापक विद्वत्ता थी।
जिस क्षेत्र में आपने प्रवेश किया उस क्षेत्र को आपने प्रभावित किया।
आपकी गौरववंत व्यापक विद्वत्ता के सभी पहलूओं पर प्रकाश डालना यहाँ कठिन है फिर भी दो चार प्रभावक विद्वत्ता का यत् किंचित् ख्याल करायेंगे। वक्तृ त्व : “वक्ता दशसहस्त्रेषु' उपरोक्त चिरंतन उक्ति बताती है कि वक्तृत्व कला की साधना कोई आसान कार्य नहीं है। यद्यपि आधुनिक युग में यह उक्ति कोई असत्य कराने का साहस कर सकता है लेकिन जिस अर्थ में इस उक्ति का उच्चारण हुआ है उनकी तह तक जाकर ख्याल किया जाय तो यह संभवित नहीं होगा। क्योंकि आज के बहधा वक्तागण सिद्धांतहीन, लक्ष्यहीन और अमौलिक विचारधाराओं को बहानेवाले बन गये हैं। कई धर्मगुरु भी इस मलिन प्रवाह में खिंचे जा रहे हैं। इस कोटि में प्रविष्ट वक्ताओं में वाक्प्रवाह और मोहक शब्दजाल का बड़ा भारी वैभव है। लेकिन यह केवल वक्तव्यता का वैभव है, आत्मतत्त्व नहीं। वक्तव्य में सैद्धांतिकता, लक्ष्यनिष्ठता एवं मौलिकता स्व-तत्वरूप हैं। आत्मतत्त्वशून्य वैभव आकर्षक होने पर भी कल्याणकारी नहीं है।
आचार्यवर्य के वक्तव्य में अनोखा वैभव था लेकिन चैतन्य से परिपूर्ण। संयम जीवन के तृतीय वर्ष पूर्ण होते ही आप गुरुमहाराज के सुधर्मपीठ के उत्तराधिकारी के रुप में निर्णीत हो चुके थे। यद्यपि आप सबसे छोटे थे तथापि सभी सहवर्ती मुनियों का गुणानुरक्त चित्त सदैव आपके प्रति आकृष्ट था। जिन
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