Book Title: Sramana 2000 07 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ रहनेवाले व्यक्ति में कुलीनता अवश्य होती है, वैसे ही आजीवन गुरुकुलनिवासी के जीवन में बिना प्रयास के महान्-गुण सहज प्राप्त हो जाते हैं। आचार्यश्री प्राय: आजीवन गुरुकुलवासी बने थे, गुरुके सिर का बोझ नहीं- अपितु गुरु का बोझ उठाकर। इस भव्य गुरुकुलवास ने जीवन में श्रद्धा, वैराग्य और सहनशीलता को आत्मसात करने का अमूल्य अवसर दिया जो मुनिजीवन का सबसे महनीय साधना का अविभक्त अंग है। अभ्यास : विद्याधनी मुनि के लिये विद्या प्राण से भी अधिक प्रिय होती है। पुराने जमाने में अभ्यास के साधन अत्यल्प थे और अभ्यास अनुराग महान् था। अल्प साधन से अनल्प प्राप्त करनेकी तड़पन रोमांचको विकस्वर कर देनेवाली होती है। बालजीवनसे आचार्यवर्य विद्याके व्यसनी बन चुके थे। अभ्यासी तीन प्रकार के होते हैं। १. गुरु का पढाया हुआ भी नहीं पढ़नेवाला। २. गुरु का दिया हुआ पढ़ने से तृप्त होनेवाला। ३. गुरु की शिक्षाको आत्मसात कर उसमें अत्यन्त वृद्धि करनेवाला। आचार्यवर्य तीसरे वर्ग के अभ्यासी थे। आप बहत छोटे-छोटे ग्रंथ पढ़ते थे। लेकिन महान् ग्रंथों के रहस्य आत्मसात कर लेते थे। आपका अभ्यास केवल पठनान्वित नहीं अपित् चिंतनान्वित भी था। इसी कारण आप अभ्यास की मस्ती में कड़ी धूप को भूल जाते थे। गर्मी के दिनोंमें अग्नितप्त छतों के नीचे बैठकर अभ्यास करना आपके लिये कष्टदायी नहीं था। गुरु महाराज के दंडासनकी भीमकाय लाठी प्रति रात्रि में प्रहाररूप आशीर्वाद प्रदान करती रहती थी। बड़े प्रेमसे आप नतमस्तक होकर गुरुमहाराज के प्रहार प्रसादका स्वागत करते थे। चिंतनान्वित अभ्यास से आपका ज्ञान गहरा बना और गुरुबहुमान से ज्ञान आत्मपरिणत बना, आत्मपरिणत एवं सूक्ष्म अभ्यासके कारण आप अभ्यासकाल में ही विद्वान् बन गये। अध्ययन कालमें अध्यापक बन गये। सहपाठी ज्येष्ठ मुनिवृंद भी आपके अभ्यास से आकृष्ट थे। अभ्यास व्यसन-रस आपको इतना लगा था कि अपना नियत अभ्यास अत्यंत शीघ्रता से पूर्ण कर देते थे। समयका बचाव करके आप अन्य विषय में स्वयं ही प्रगति कर लेते थे। जब कोई सैद्धांतिक अभ्यासी सिद्धांतके गहन-विषयमें संदिग्ध हो जाते थे, तो आप उन्हें निश्चिंत बना देते थे। जब ज्येष्ठ मुनिगणों को यह अनुभूति होती तो वे आश्चर्यसागरमें डूब जाते। 'जिस विषय की पढाई नहीं की, उस विषय के निपुण भी यह उत्तर नहीं दे सकते तो आप कैसे दे सकते हैं" पर उत्तर देने मात्र से आप कृतार्थ नहीं होते, अपितु शास्त्र पाठ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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