________________
( २८ ) व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध सन्तानों को भिक्षुओं के निवास स्थानों पर' छोड़ जाती थीं। आगम और आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए भिक्षुओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में इन उपरिस्थितियों में भिक्षु को क्या करना चाहिए इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भवनाओं के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा है। यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे जीवन का विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ इसका पूर्ण अभाव हो।
आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों को वासना का शिकार होना पड़ा था। पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख निशीथ और बहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है । रूपवती भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के लिए इस प्रकार का वेष धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरूप प्रतीत हों। भिक्षुणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है । भिक्षणी संघ में प्रवेश करने वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षणी उपाश्रय के बाहर दण्ड लेकर बैठती थी । शील सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी नहीं रखता था। पुरुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे । प्रसूत बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना रह सके तो उसे उपा
१. निशीथचूणि, भाग ३ पृ० २६७ । २. निशीथचूर्णि भाग २, पृ० १७३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org