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( ५५ ) शब्द ही दिया है और उसका संस्कृत रूपान्तर भी 'खेदज्ञ' ही दिया है जबकि उसी स्थल पर 'मायन्न' का रूपान्तर 'मात्रज्ञ' (संस्कृत) दिया है। __ इस सम्पूर्ण अन्वेषण और विश्लेषण का सार यही है कि अर्धमागधी भाषा में मूलतः खेत्तन्न शब्द ही था जो 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् आत्मज्ञ के साथ सम्बन्धित था, न कि 'खेदज्ञ' के साथ जो परवर्ती काल की देन है । बदलती हुई प्राकृत भाषा की ध्वनि-परिवर्तन की प्रवृत्ति के प्रभाव में आकर खेत्तन्न शब्द ने कालानुक्रम से अनेक रंग बदले या अनेक रूप धारण किये और वे सभी रूपान्तर आचारांग के अलग-अलग संस्करणों में हमें आज भी मिल रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि आगमों के नये संस्करण में 'खेत्तन्न' पाठ ही उचित प्राचीन और यथायोग्य माना जाना चाहिए।
कहने की आवश्यकता नहीं कि काल और क्षेत्र की दृष्टि से इस शब्द के अनेक रूपान्तर हुए और वे अलग-अलग प्रतियों में और उनमें भी अलग-अलग रूप में तीन स्तरों में उपलब्ध हो रहे हैं। इन सबका कारण है विविध काल में स्थानिक प्रचलन ( उपयोग) की भाषा का प्रभाव । यदि यह शब्द भगवान् महावीर के मुख से निकला हो अथवा उनके गणधरों ने इसे भाषाकीय रूप दिया हो अथवा पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना ( जैन आगमों की ) का यह पाठ हो तब तो पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखीय प्रमाणों के अनुसार 'खेत्तन्न' शब्द ही मौलिक एवं उपयुक्त माना जाना चाहिए। अगर यह मान्य नहीं हो तो मथुरा की दूसरी वाचना का शब्द ( शौरसेनी रूप ) खेदन या खेदण्ण ही उपयुक्त हो सकता है। यदि यह भी मान्य नहीं हो तो तीसरी वाचना अर्थात् वलभी का शब्द खेयण्ण ही माना जाना चाहिए । इस तरह तो फलित यही होगा कि पू० देवधिगणि ने आगमों की रचना की है और उनकी भाषा में मागधी प्राकृत के स्थान पर महाराष्ट्री भाषा का ही प्रभुत्व है। परन्तु प्रश्न यह है कि एक काल की किसी भी रचना में पूर्ववर्ती काल के अलग-अलग वर्तनी वाले शब्द कैसे आ सकते हैं । इसका समाधान यही हो सकता है कि यदि प्रस्तुत ग्रंथ की रचना प्राचीन है और वह पूर्वी प्रदेश ( मगध देश ) की है तब तो मात्र
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