Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ हरिभद्र की श्रावकप्रज्ञप्ति में वर्णित अहिंसा : आधुनिक सन्दर्भ में -डॉ० अरुण प्रताप सिंह अहिंसा का परिपालन मानव के सामाजिक अस्तित्व का एक अनिवार्य तत्त्व है । जैन धर्म में अहिंसा एक ऐसा केन्द्र-बिन्दु है जिसके चारों ओर उसका समस्त आचार शास्त्र परिभ्रमण करता है। सत्य, अस्तेय आदि अन्य व्रतों की भी जो विवेचना की गई है, उसमें भी अहिंसा की दृष्टि ही प्रधान है । प्राचीनतम अंग साहित्य से लेकर व्याख्या साहित्य तक-सम्पूर्ण जैन वाङ्मय अहिंसा के विवेचन से भरा पड़ा है । प्राचीन जैन आचार्यों से लेकर आधुनिक विद्वानों तक सभी के लेखों में अहिंसा की विवेचना एक प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रही है। इतने बहुचचित विषय के सम्बन्ध में कुछ नवीन तथ्य प्रस्तुत कर पाना मात्र एक गर्वोक्ति ही होगी। फिर भी, आठवीं शताब्दी के जैन आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने श्रावकप्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ में अहिंसा के सम्बन्ध में जो एक सूक्ष्म दृष्टि प्रस्तुत की है, उसका आधुनिक सन्दर्भो में मूल्यांकन करने का हम एक विनम्र प्रयास करेंगे। हरिभद्र ने अहिंसा की जैन परम्परा से हटकर कोई नई व्याख्या की हो-ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी, उन्होंने अहिंसा के सन्दर्भ में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों की जो गम्भीर विवेचना की है, वह आज भी हमारे चिन्तन को न केवल प्रभावित करती है, अपितु हमें उनकी गहन विश्लेषण क्षमता और तर्कनिष्ठ दृष्टि का परिचय भी देती है। श्रावकप्रज्ञप्ति में आचार्य ने श्रावकों के कर्तव्यों का विवेचन करते हुए १२ व्रतों अर्थात् ५ अणुव्रतों, ३ गुणवतों और ४ शिक्षाव्रतों का विवेचन किया है । पाँच अणुव्रतों में प्रथम अणुव्रत स्थूलप्राणिघातविरमण है जिसे अहिंसाणुव्रत भी कहा जाता है। अपनी वैयक्तिक और सामाजिक स्थिति के कारण एक श्रावक अणुव्रत का ही पालन कर पाता है, महाव्रत का नहीं। उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122