Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 85
________________ ( ८३ ) है तो योग दर्शन जगत् को विकास का परिणाम मानता है। दोनों मतों में परम्परागत तरीके से हटकर ईश्वर विचार की व्याख्या की गई है। जैनधर्म मानवतावादी धर्म है अतः वह मनुष्य को केन्द्र में स्थापित करके मानव को ही ईश्वरत्व प्रदान करता है। लेकिन एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि सभी मुक्त पुरुषों ( अर्हत् ) को वह तीर्थंकर स्वीकार नहीं करता। जैन अनुश्रुतियों में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य तीर्थङ्करों के संदर्भ में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार इस दृश्यमान जगत् में काल का चक्र सदा घूमता रहता है। यद्यपि काल का चक्र अनादि और अनंत है तथापि उसके छ: विभाग हैं (क) अतिसुखरूप, (ख) सुखरूप, (घ) सुखदुःखरूप, (ङ) दुःखसुख रूप (इ) दुःखरूप, (च) अतिदुःखरूप । जगत् गाड़ी के चक्के के समान सदा घूमा करता है। दुःख से सुख की ओर तथा सुख से दुःख की ओर ले जाने को अवसर्पिणी काल या अवनतिकाल कहते हैं और दुःख से सुख की ओर ले जाने को उत्सर्पिणी काल या विकास काल कहते हैं। इन दोनों के बीच की अवधि लाखों करोड़ों वर्ष से भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के दुःख सुख रूप भाग में चौबीस तीर्थङ्करों का जन्म होता है जो जिन अवस्था को प्राप्त करके तीर्थ या संघ बनाकर जैन धर्म का उपदेश करते हैं। योगदर्शन वेदसम्मत नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव ईश्वर की कल्पना करता है। अध्यक्ष दर्शन विभाग मु० म० टा० स्नाकोत्तर महाविद्यालय बलिया (उ० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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