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हर्षपुरीय गच्छाचार्यों का जैन धर्म में विशिष्ट योगदान रहा है । इस विषय में राजशेखर सूरि के शिष्य सुधाकलश के शब्दों में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि -
राजानः प्रतिबोधिताः कति कति ग्रन्था स्वयं निर्मिताः । वादीन्द्राः कति निर्जिताः कति तपांस्युग्राणि तप्तानि च ॥ श्रीमद्हर्षपुरीयगच्छमुकुटैः श्रीसूरि सूत्रामभिः सच्छिष्यैः मुनिभिश्च वेत्ति नवरं वागीश्वरी तन्मितम् । "
अध्ययन एवं पाण्डित्य
मलधारि राजशेखर की कृतियों के शीर्षकों का अवलोकन करने मात्र से ही यह धारणा बनती है कि आचार्य का अध्ययन एवं ज्ञान - क्षेत्र बहुत व्यापक था । यह संयोग ही है कि आचार्य द्वारा अधीत कुछ ग्रन्थों के नाम सहित उल्लेख प्राप्त होने के साथ-साथ उनको अध्ययन कराने वाले आचार्यों का भी नामोल्लेख मिलता है । इन्होंने जिनचन्द्र सूरि से अध्ययन किया था । खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि में उल्लिखित है कि विवेक समुद्र उपाध्याय के निर्वाण महोत्सव के उपरान्त राजेन्द्राचार्य, दिवाकराचार्य, राजशेखराचार्य, राजदर्शन गणि, सर्वराज आदि अनेक मुनिवृन्द ने अपने पूज्य गुरु जिनचन्द्रसूरि के साथ बैठकर हैमव्याकरण, बृहद्वृत्ति, षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमाण, न्याय, महातर्क आदि सभी शास्त्रों की तीन बार आवृत्ति की ।
राजशेखर ने स्वरचित न्यायकन्दली पंजिका में जिनप्रभसूरि को
१. संगीतोपनिषत्सारोद्धार [अ० ६, श्लोक ४८ ]
द्रष्टष्य — अलंकार महोदधि - नरेन्द्रसूरि प्रस्तावना, गायकवाड ओरियण्टल सिरीज १९४२ ।
स्वकीयसुगुरु श्रीजिनचन्द्रसूरिस्वसहाध्यायि श्री राजेन्द्राचार्य श्रीराज - शेखराचार्य वारत्रयं भणितश्री हैमव्याकरणवृहद्वृत्ति - षट्त्रिंशत्
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सहस्रप्रमाण श्री न्याय महात र्कीदिसर्वशास्त्राणां " खरतरगच्छबृहद्गुर्वावलि, पृ० ७१
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