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( १०२ ) स्वयं राजशेखर ने अपने को ग्रन्थ-प्रणयन सामर्थ्य से युक्त बताया है।' राजशेखर ने अपनी इस प्रतिभा का उपयोग विविध-विषय के ग्रन्थों की प्रसूति में किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में आगमग्रन्थों, प्राकृत व संस्कृत के अनेक ग्रन्थकारों व उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है जो उनके व्यापक ज्ञान का परिचायक है।
मलधारि राजशेखर को दर्शन का अच्छा ज्ञान था। अपनी कृति षड्दर्शनसमुच्चय में इन्होंने जैन, सांख्य, मीमांसा, शैव, वैशेषिक और बौद्धदर्शनों का स्वरूप वर्णन पूर्वाग्रहरहित हो निरपेक्ष भाव से किया है। रत्नाकरावतारिकापञ्जिका और न्यायावतारटिप्पण में जैन न्याय, न्यायकन्दली पञ्जिका में बौद्ध दर्शन, स्याद्वाद कलिका में स्याद्वाद का विवेचन विविध दर्शनों पर इनके अधिकार को परिलक्षित करता है।
इसके अतिरिक्त जन्म-मरण, राज्यारोहण आदि से सम्बद्ध भविष्यवाणियों व ग्रह, नक्षत्र और राशियों का वर्णन विभिन्न संदर्भो में राजशेखर ने किया है जिससे ज्योतिष-शास्त्र पर आचार्य के ज्ञान एवं विश्वास का बोध होता है।
राजशेखर सूरि को इतिहास का भी अच्छा ज्ञान था परन्तु ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बहुत सी किंवदन्तियों व कथाओं का समावेश होने के कारण ऐतिहासिक सत्यता संदिग्ध हो गयी है। डा० मजुमदार ने राजशेखर सूरि की इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए लिखा है–सम्भवतः गुजरात के इतिहासकारों में राजशेखर सबसे अधिक अप्रामाणिक हैं क्योंकि उनका ग्रन्थ विसंगतियों से भरा पड़ा है तथा भयावह है क्योंकि वह इतिहास ग्रन्थ की सादृश्यता का आभास देता है।
राजशेखर एक कवि, दार्शनिक और व्याख्याकार के रूप में ही हमारे समक्ष नहीं आते बल्कि उन्होंने ग्रन्थों का संशोधन भी किया १. विद्वत्प्रसादतो ग्रन्थग्रन्थन (ना) रे (२) ब्धपौरुषः ॥५॥
रत्नाकरावतारिका पंजिका प्रशस्ति ।। २. डॉ० मजुमदार, ए० के०-चालुक्याज आव गुजरात, पृ० ४२०, भारतीय
विद्या भवन, बम्बई १९५६
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