Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 103
________________ ( १०१ ) अपने अध्यापक के रूप में स्मरण किया है ।' 'राजशेखर सूरि जिनचन्द्रसूरि और जिनप्रभसूरि से अध्ययन किये थे।' इसका कई स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होता है । राजशेखर सूरि को क्रमशः और विधिपूर्वक प्रदत्त वाचनाचार्य, आचार्य की उपाधियाँ ही उनकी असाधारण प्रतिभा एवं योग्यता को व्यक्त करती हैं । इन उपाधियों के धारक श्रमण बहुश्रुत एवं अत्यन्त ज्ञानी होते थे । कल्पसूत्र में आचार्य की योग्यता बताते हुए कहा गया है कि आचार्यपद का अधिकारी वही व्यक्ति है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का पालन करे और अपने शिष्यों से पालन करावे, जो साधुसंघ का स्वामी हो और संघ के अनुग्रह - निग्रह, सारण-वारण और धारण में कुशल हो, लोकस्थितिवेत्ता हो, जातिमान् आदि आठ सम्पदाओं से युक्त हो । २ स्थानांग - सूत्र की टीका में आचार्यपद की योग्यता निर्दिष्ट करते हुए कहा गया है - चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, द्रव्यानुयोग और गणितानुयोग इन अनुयोगचतुष्टयों के ज्ञान को धारण करने वाला, चतुर्विधसंघ के संचालन में समर्थ तथा छत्तीस गुणों का धारक साधु आचार्य पदवी के योग्य माना जाता है । ४ इसी प्रकार सूरि पद भी अत्यन्त विद्वान् एवं उच्चाचार वाले श्रमण को प्रदान किया जाता था । योगशास्त्र के अनुसार जो संयतों को दीक्षा दिया करता है उसे सूरि कहा जाता है । देवसेन" के अनुसार जो छत्तीस गुणों से परिपूर्ण होकर पाँच आचारों का पालन करता हुआ शिष्यों के अनुग्रह में दक्ष होता है उसे सूरि कहते हैं । १. डॉ० भारद्वाज, प्रवेश, प्रबन्धकोश का ऐतिहासिक विवेचन पृ० २७, २. कल्पसूत्र, उ० ३ सूत्र १३ ३. जैन सिद्धान्तबोल संग्रह, सं० सेठिया, भैरोदान, भाग - २, पृ० २३९-४०, जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर, राजस्थान १९४५ ४. जैन लक्षणावली, भाग ४ ५. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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