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है कि दासियों द्वारा पुत्र-प्रसव के उपरान्त उस पर स्वामी का स्वतः अधिकार स्थापित हो जाता था। स्वामी की देख-रेख में बाल्यावस्था से ही इनका पालन-पोषण किया जाता था। प्रारम्भिक अवस्था में ये स्वामी-पुत्रों का मनोरंजन करते तथा उन्हें क्रीड़ा कराते थे। कभीकभी अपने स्वामी को भोजन आदि भी पहुँचाते थे' तथा बड़े होने पर अन्य गुरुतर कार्यों को सम्पादित करते थे।
क्रीतदास–जैनागमों में कुछ ऐसे भी विवरण मिलते हैं जहाँ राजपुरुषों द्वारा अपने कार्यों में सहयोग हेतु विविध देशों से लाये गये दासदासियों को नियुक्त किया गया था। इनमें दासों ( पुरुषों) की अपेक्षा दासियों का उल्लेख अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। विदेशी दासियों में चिलातिका (चिलात-किरात देशोत्पन्न) वर्वरी ( वर्वरदेशोत्पन्न ), वकुश देश की तथा योनक, पल्हविक, ईसनिक, लकुस, द्रविण, सिंहल, अरब, पुलिंद, पक्कड़, बहल, भुरुंड, शबर, पारस आदि का नामोल्लेख हुआ है। ये दासियाँ अपने-अपने देश के वेश धारण करने वालीं, इंगित, चिंतित, प्रार्थित आदि में निपुण, कुशल एवं प्रशिक्षित होती थीं। इन तरुण दासियों को वर्षधरों ( नपुंसकों) कंचुकियों एवं महत्तरकों ( अन्तःपुर के कार्य की चिन्ता रखने वालों) के साथ राजपुत्रों के लालन-पालन हेतु नियुक्त किया जाता था। विदेश से मँगवाई गयी दासियों का विवरण उस समय समाज में दासों के क्रय-विक्रय का संकेत प्रस्तुत करता है, जिसकी पुष्टि केशवाणिज्य' के अन्तर्गत दास-दासियों की खरीद-फरोख्त ( पशुओं के समान ) किये जाने से होती है ।
- युद्धदास-युद्ध में विजयी पक्ष, पराजित राज्य की विविध धनसम्पदा के साथ-साथ मनुष्यों को भी बन्दी बना लेता था। इनमें से कुछ अतिविशिष्ट स्त्रियों को तो धन-सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा पत्नी के १. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, १।२।४३ २. वही, १।२।३३ ३. अन्तकृद्दशांगसूत्र ३।२; राजप्रश्नीय सूत्र २८१ ४. वही ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र २।८।५; उत्तराध्ययन ८।१८
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