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जैन आगम साहित्य में वर्णित दास प्रथा
— डॉ० इन्द्रेश चन्द्र सिंह
प्राचीन भारत में दास प्रथा प्रागैतिहासिक काल से ही प्रचलित मानी जाती है ।" यद्यपि कतिपय विदेशी इतिहासकारों ने भारत यात्रा के दौरान यहाँ जो कुछ देखा, उसके आधार पर भारत में दास प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, इसका प्रमुख कारण यह था कि भारत में दास प्रथा समकालीन सभ्य देशों जैसेरोम, यूनान और अमेरिका आदि की भाँति नहीं थी । उक्त सभ्य देशों में दासों के साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता था । इसके विपरीत भारत में दास एवं दासियाँ परिवार के सदस्यों के साथ रहते थे तथा परिवार के अंग समझे जाते थे । जैनागम आचारांग - सूत्र में गृहपति, उसकी पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्री एवं पुत्रवधू के साथ दास-दासी तथा नौकरों ( सेवकों ) को भी पारिवारिक सदस्यों के अन्तर्गत ही वर्णित किया गया है । पश्चिमी सभ्य कहे जाने वाले देशों में दासों की स्थिति से भारतीय दासों की उत्कृष्टता को प्रमाणित करने के लिए भारतीय राजाओं द्वारा इन्हें 'देवानुप्रिय' जैसे शब्द का सम्बोधन पर्याप्त होगा । सामान्यतया दास परिवार में रहते हुए समस्त आन्तरिक एवं बाह्य कार्यों में अपने स्वामी का सहयोग करते थे । ४
दासों की स्थिति - जैनाचार्यों ने दासों की गणना दस बाह्य परिग्रहों में करते हुए श्रमणों के लिए इनका प्रयोग निषिद्ध बताया है । इसके विपरीत गृहस्थों के लिए इन्हें सुख का कारण बताया गया
१. स्लेवरी इन ऍंशियेण्ट इण्डिया - डी० आर० चनन, दिल्ली पृ० १५-१८ सन् १९६०
२. आचारांगसूत्र, २।१।३३७, पृ० २५
३. ज्ञाताधर्मकथासूत्र १|१| २६; राजप्रश्नीयसूत्र, विवेचन पृ० १७ ४. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, १।३।१६
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