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( ८१ ) ईश्वर सदा एकरस और निर्विकार है। वह अनंत एवं अद्वितीय है। इच्छामात्र से वह समस्त जगत् का परिचालन कर सकता है। वह केवल सदिच्छाओं से पूर्ण है।
III
जैन एवं योग दर्शन में वर्णित ईश्वरत्व की अवधारणा का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दोनों में काफी समानता है। वैसे जैन दर्शन वेद विरोधी होने से नास्तिक दर्शन की कोटि में गिना जाता है और योगदर्शन आस्तिक दर्शनों ( वेद में विश्वास करने वाले ) की श्रेणी में आता है अतः दोनों में विभिन्नता भी स्वाभाविक है । इनके बीच स्थित समानताओं एवं विभिन्नताओं का वर्णन इस प्रकार है :जैन और योग दर्शन में वणित ईश्वर विचार को समानताएं: १. दोनों मतों में ईश्वर को स्रष्टा, नहीं माना गया है। २. ईश्वर पूर्ण, अनंत, सर्वशक्तिशाली एवं सर्वव्यापक है, ऐसा
दोनों ही मानते हैं। ३. ईश्वर ज्ञान की पराकाष्ठा है, वह सर्वज्ञ है। ४. वह आदर्श गुरु है जो साधक को साध्य की प्राप्ति में सहायक
होता है। ५. वह वीतराग है। क्लेश ब राग-द्वेष से ऊपर है, ऐसा दोनों
मानते हैं। ६. वह न तो जीवों को बंधन में डालता है और न उन्हें युक्त
करता है । अज्ञान बन्धन का कारण है और ज्ञान ही मोक्ष है
ऐसा दोनों स्वीकार करते हैं। ७. दोनों सैद्धान्तिक रूप से नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से ईश्वर
की आवश्यकता स्वीकार करते हैं। ८. दोनों मतों में ईश्वर को ध्यान का विषय स्वीकार किया
गया है। ९. दोनों में ईश्वर के तात्त्विक एवं नैतिक गुणों का विधान किया
गया है।
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