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योग दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के जो प्रमाण दिए गये हैं उनका विवरण इस प्रकार है :
(अ) वेदादि के आधार पर - वेद, उपनिषद् आदि सभी शास्त्र ईश्वर को परम सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं । इस प्रकार शास्त्र सम्मत होने के कारण ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
(ब) अनवरतता के सिद्धान्त के आधार पर - अनवरतता के अनुसार यह स्वीकार किया जाता है कि जिस वस्तु की न्यूनाधिक मात्रा होती है उसकी एक अल्पतम और अधिकतम सीमा भी होती है । अल्पतम परिणाम अणु है और अधिकतम आकाश । ठीक इसी तरह ज्ञान एवं भक्ति के संदर्भ में भी सोचना चाहिए उपर्युक्त की भिन्न-भिन्न मात्राएँ दीख पड़ती हैं। उनकी भी एक सीमा होनी चाहिए। अवश्य ही एक ऐसा पुरुष होना चाहिए जो सर्वाधिक ज्ञान एवं भक्ति रखने वाला हो । यह पुरुष ईश्वर है ।
( स ) प्रकृति एवं पुरुष के संयोग एवं वियोग ( विच्छेद ) की कारकता के आधार पर - प्रकृति एवं पुरुष दोनों भिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधी स्वभाव वाले तत्त्व हैं । प्रकृति जड़ है तो पुरुष चेतन । प्रकृति सक्रिय है तो पुरुष निष्क्रिय । इन दोनों के संयोग से ही विश्व
विकास होता है और दोनों के विच्छेद से विश्व का प्रलय होता है । अब समस्या है कि अगर एक तीसरे निमित्तकारण के अस्तित्व को - स्वीकार न किया जाय तो उपर्युक्त के सन्दर्भ में संयोग एवं विच्छेद की प्रक्रिया संभव नहीं हो पायेगी । यही निमित्त कारण ईश्वर है जिसकी प्रेरणा के बिना प्रकृति जगत् का उस रूप में विकास नहीं कर सकती है जो जीवों के अभ्युदय एवं निःश्रेयस के लिए अनुकूल हो ।
(द) ईश्वर की भक्ति के आधार पर - ईश्वर की भक्ति ( ईश्वर प्रणिधान) समाधि के लिये निश्चित एवं सर्वोत्कृष्ट साधन है । ईश्वर केवल ध्यान का विषय ही नहीं बल्कि वह पूर्ण महाप्रभु है जो अपनी कृपा से उपासकों के पाप एवं दोष दूरकर उनके लिये समाधि का मार्ग प्रशस्त कर देता है । ईश्वर भक्ति एवं ईश्वर कृपा योग सिद्धि के लिये अनुकूल मार्ग बना देती है । ईश्वर की अनुकम्पा से ही कैवल्य की प्राप्ति संभव है ।
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