Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 79
________________ ( ७७ ) साध्य की प्राप्ति में सहायक होता है।' शुभचन्द्र ने चार प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया है--पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान ।' उन्होंने यह स्वीकार किया है कि रूपस्थ ध्यान में तीर्थंकर के विभूतिमय स्वरूप का ध्यान योगी को करना चाहिए। इससे उसे साधना में अग्रसारित होने की प्रेरणा मिलती है और योगी सिद्धावस्था को प्राप्त करने लायक हो जाता है।३ "जिस प्रकार समुद्र में भटकते हुए जहाज के लिए स्वयं कुछ न करके भी प्रकाश स्तंभ एक त्राणदाता होता है, उसी प्रकार दुःख के सागर में उतराते हम पामर प्राणियों के लिए वीतराग प्रभु कुछ नहीं करता हुआ भी त्राणदाता होता है। वह एक प्रकाश स्तम्भ है, मार्गदर्शक है, आदर्श है जिसके आलोक में हम अपनी यात्रा कर सकते हैं।"४ तीर्थंकर की स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तःचेतना को जागृत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवंत चित्र उपस्थित करती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शन विशुद्धि होती है, उसका दृष्टिकोण सम्यक् बनता है और परिणामस्वरूप वह आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है।"५ भगवद्भक्ति से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। आवश्यकनियुक्ति में जैनाचार्य भद्रबाहु ने इस बात को स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि भगवान् के नाम स्मरण मात्र से पाप क्षीण हो जाते हैं । उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करते हुए भी तीर्थंकरों को ईश्वर के रूप में स्थापित करते हैं । यहाँ नास्तिकता में आस्तिकता का दर्शन होता है । तीर्थंकर ईश्वर रूप है लेकिन सृष्टिकर्ता नहीं। मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य (कैवल्य-प्राप्ति) की प्राप्ति में साक्षात् कारण नहीं बनते। १. योगशास्त्र १३-१७ २. ज्ञानार्णव ७१० ३. वही ३७-५० ४. धर्म का मर्म, पृ० ३१ ५. वही, पृ० ३२ ६. उद्धत वही, पृ० ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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