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( ८० ) योग दर्शन में ईश्वर के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला गया है। महर्षि पंतजलि ने ईश्वर की परिभाषा देते हुए कहा है कि 'ईश्वर अविद्यादि क्लेश पापपूण्य कर्म, उन कर्मों के फल एवं वासनाओं से रहित पुरुष विशेष है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश ये पाँच क्लेश माने गये हैं। अविद्या को क्लेशों की प्रसव भूमि या मूल कारण माना गया है। कुशल और अकुशल, शुभ और अशुभ, पुण्य एवं पापरूप कर्म कहे जाते हैं। पुण्य और पाप के फल जाति आयु योग रूप विपाक माने गये हैं। सुख-दुःख आदि भोगों से उत्पन्न नाना प्रकार की वासना आस्रव कहलाती है। इस प्रकार उक्त क्लेश, कर्म विपाक और आस्रव से जो असम्बद्ध ( अपराभ्रष्ट ) है वही पुरुष विशेष ईश्वर है।
पुरुष विशेष की एक दूसरी व्याख्या भी दी गई है। ईश्वर सभी प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त है। अणिमादि सभी ऐश्वर्य ईश्वर के समान अथवा ईश्वर से अधिक किसी में नहीं हैं। इस प्रकार बद्ध, मुक्त, प्रकृतिलीन आदि सभी जीवों की अपेक्षा ईश्वर पुरुषविशेष है।
पुरुष विशेष ईश्वर ही ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा सर्वज्ञता का बीजस्वरूप है। योग दर्शन में ईश्वर को गुरु या उपदेष्टा के रूप में चित्रित किया गया है । सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न ब्रह्मादि देवों तथा अंगिरादि ऋषियों के भी गुरु या उपदेष्टारूप में वही ईश्वर स्थित है। वह नित्ययुक्त है । न वह कभी बन्धन में था और न आगे ही सम्भावना है। वह कर्म सिद्धान्त से परे है। ससार के सभी जीव अविद्यादि अहंकार, वासना, राग-द्वेष और अभिनिवेश (मृत्युभय) आदि के कारण दुःख पाते हैं। वे भिन्न-भिन्न कर्म ( सुकर्म, कुकर्म, विकर्म ) करते हैं और उनके विपाक स्वरूप सुख-दुःख भोग करते हैं। वे पूर्व जन्म के संस्कार (आशय) से भी प्रभावित होते हैं। कैवल्य की प्राप्ति करने पर भी मुक्तात्मा को नित्यमुक्त नहीं कह सकते क्योंकि कैवल्यप्राप्ति के पूर्व वह बंधन में था। वह सर्वशक्तिशाली एवं सर्वव्यापी है। वह नित्य पूर्ण है। ओम या प्रणव ईश्वर का वाचक है। ईश्वर की कृपा ओम् शब्द से होती है। अतः योगी को प्रणव का उच्चारण रूप जप तथा ओम् के अर्थस्वरूप ईश्वर की भावना करनी चाहिए। ईश्वर का जप तथा ईश्वर की भावना करने से योगी का चित्त एकाग्र हो जाता है।
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