Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 77
________________ नहीं होते वरन् साधारण प्राणियों के समान ही जन्म ग्रहण कर कामक्रोधादि विकारों पर विजय प्राप्त करके परमात्मा बन जाते हैं, अर्थात् ईश्वरत्व को प्राप्त होते हैं। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ, हितोपदेशी ही जिन हैं तथा उनके द्वारा किया गया उपदेश ही जैन धर्म है।' इन जिन अथवा तीर्थंकरों की शानदार पूजा जैनधर्म में होती है । इनकी मूर्तियाँ प्रत्येक जैनी के लिए श्रद्धा एवं आराधना की विषय हैं। जैन धर्म में विभिन्न तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं निर्वाणदिवसों को पर्व के रूप में मनाया जाता है ।२ सम्पूर्ण जैनधर्म और दर्शन ऐसे ही चौबीस तीर्थंकरों की वाणी या उपदेश का संकलन है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि जैनधर्म में सभी मुक्त जीव तीर्थकर नहीं होते। तीर्थंकर जिन अवस्था को प्राप्त करके तीर्थ या संघ की स्थापना करके जैन धर्म का उपदेश करते हैं। इन २४ तीर्थंकरों में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। वर्द्धमान या महावीर (ई० पूर्व ६००) चौबीसवें तीर्थंकर थे। वर्द्धमान के पूर्व २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे।४ जैनधर्म में तीर्थंकरों को केवल भगवान् रूप में ही स्वीकार नहीं किया गया है बल्कि उनमें तात्विक और नैतिक गुणों का भी विधान किया जाता है। तीर्थंकर में सर्वज्ञता, अनंतता, सर्वशक्तिमत्ता आदि गुण पाये जाते हैं। कहा गया है कि तीर्थंकर अनंत शक्ति, अनन्त ज्ञान, १. जैनधर्म -पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ० ६५ २. जैन आध्यात्मवाद : आधुनिक संदर्भ में, पृ० १३ ३. जैनधर्म --पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पृ० ३४ तथा द्रष्टव्य-स्टडीज इन जैन फिलासफी-टाटिया, नथमल (पा० वि० शो० संस्थान, वाराणसी) १९५१, पृ० १२८ ४. अन्य तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार है :-अजित, सम्भव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभु, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि,. पार्श्व । ५. भारतीय दर्शन-दत्ता और चटर्जी पृ० २३-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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