Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 75
________________ ( ७३ ) जीवन का साध्य प्राप्त किया जा सकता है। साधना ही व्यक्ति को परमात्मपद की प्राप्ति करा सकती है। जैन धर्म में साध्य एवं साधक में अभेद माना गया है। समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्दसूरि लिखते हैं : “पर द्रव्य का परिहार एवं शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है।"१ वस्तुतः "जैन साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्त्व नहीं है, वह तो साधक का अपना ही निज रूप है। उसकी ही अपनी पूर्णता की अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं है वरन् उसके अन्दर ही है। साधक को उसे पाना भी नहीं है क्योंकि पाया वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य हो ।”२ वह आत्मा जो कषाय और राग-द्वेष से युक्त है और उनसे युक्त होने के कारण बद्ध, सीमित और अपूर्ण है, वही आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सौख्य एवं अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमरमुनि जी कहते हैं कि आत्मा के बाहर एक कण में भी साधना की उन्मुखता नहीं है। इसीलिए जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक संबंध को लेकर कहा गया है -"अप्पा सो परमप्पा" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। फर्क केवल कर्मरूप आवरण का है । जैन धर्म में इस बात पर जोर दिया गया है कि मनुष्य परमात्मपद को अपने ही प्रयत्न से प्राप्त कर सकता है, ईश्वर कृपा से नहीं। स्वप्रयत्न, स्वसाधना और स्वकर्म ही उसे उसके लक्ष्य तक पहुँचा सकते हैं । "जैन धर्म ने किसी विश्वनियंता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना के द्वारा परमात्मदशा को प्राप्त कर सकता है।" जैनधर्म केवल उन लोगों के लिए है जो वीर और दृढ़चित्त हैं। १. समयसार टीका ३०५ २. धर्म का मर्म-डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ वि० शो० संस्थान, वाराणसी १९८६, पृ० २२ ३. वही, पृ० २३ ४. वही ५. "जैन अध्यात्मवाद : आधुनिक सन्दर्भ में"-डॉ० सागरमल जैन प्रा० वि० शो• संस्थान ( लघु प्रकाशन नं० ११) १९८३, पृ० १५-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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