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यहाँ पर उन कारणों पर प्रकाश डालना अपरिहार्य है जिनके आधार पर ईश्वर- सत्ता का खण्डन किया जाता है :
अ - सृष्टि की रचना द्रव्यों से हुई है ।
ब - ईश्वर को निर्माण अथवा सृष्टि की आवश्यकता नहीं है । स- मनुष्य अपना भाग्य-विधाता स्वयं है । कर्म से ही जीवन का
साध्य प्राप्त किया जा सकता है । साधना द्वारा ही व्यक्ति परमात्म-पद को प्राप्त कर सकता है, ईश्वर कृपा से नहीं । द - जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के प्रति एक प्रतिक्रिया है अतः ईश्वरवाद, वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद, यज्ञ आदि बाह्य कर्मकाण्ड, दान-दक्षिणा आदि के विरोध में कहना उसकी स्वाभाविकता है ।
मानव और विश्व की प्रत्येक वस्तु का कारण जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य है । द्रव्य संख्या में छ: हैं – आकाश, काल, पुद्गल, जीव, धर्म और अधर्म । इन्हीं छः द्रव्यों के पारस्परिक संयोग एवं सम्मिश्रण के कारण विश्व की वस्तुओं एवं मानव की उत्पत्ति होती है । असंख्य जीवों एवं पदार्थों की परस्पर प्रतिक्रिया के सिद्धान्त को स्वीकार कर जैन दर्शन इस विश्व के विकास को संभव बना देता है । " जगत् के सृजन अथवा संहार के लिये ईश्वर को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसके मत से - विद्यमान पदार्थों का नाश नहीं हो सकता और न ही असत् से सृष्टि का निर्माण संभव है । जन्म अथवा विनाश वस्तुओं के अपने गुणों एवं प्रकारों के कारण होता है । हमारे शरीर और अन्य जड़ द्रव्य अणुओं के संयोग से ही बने संघात हैं । मन, वचन तथा प्राण जड़ तत्त्वों से ही निर्मित हैं । इस तरह जगत् का निर्माण एक स्वाभाविक परिणति है ।
जैनमत में मानव प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है । मानव से परे किसी अन्य श्रेष्ठ सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती । कर्म से ही
राजपाल
१. भारतीय दर्शन - डा० राधाकृष्णन् ( हिन्दी अनुवाद) भाग - १ एण्ड सन्स, दिल्ली १९८९, पृ० ३०२ ३०३
२. पञ्चास्तिकाय समयसार, १५ ३. तत्त्वार्थसूत्र- ५/१९
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