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( ७४ ) इसका मूल मन्त्र स्वावलम्बन है। यही कारण है कि यहाँ मुक्त आत्मा को "जिन" या "वीर" कहा जाता है। जैनियों को कर्मवाद जैसी अलंघ्य व्यवस्था में विश्वास है। पूर्वजन्म के कर्मों का नाश विचार, वचन और कर्मों के द्वारा ही हो सकता है। तीर्थंकर तो मार्ग प्रदर्शन के लिए केवल आदर्श का काम करते हैं। इस तरह यथार्थ स्वरूप को पहचानने से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है, तीर्थंकरों की भक्ति से नहीं।
जैनधर्म वैदिक कर्मकाण्डों के प्रति एक प्रतिक्रिया है। अतः जैनियों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे वैदिक धर्म की उन मान्यताओं का खण्डन करें। यही कारण है कि ईश्वरवाद, वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद, यज्ञ आदि बाह्य कर्मकांड, दान-दक्षिणा आदि का खण्डन जैनधर्म में मिलता है ।
सैद्धान्तिक रूप से जैनधर्म अनीश्वरवादी है किन्तु व्यावहारिक रूप से इसे ईश्वरवादी कहना अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। यह एक ऐसी सत्ता या शक्ति में विश्वास रखता है जो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। यहाँ सिद्धजीव अर्थात् तीर्थंकर ईश्वर का रूप ले लेते हैं। "जहाँ तक परमात्मा के प्रति श्रद्धा या आस्था का प्रश्न है, जैनधर्म में इसे वीतरागदेव ( तीर्थंकर) के प्रति श्रद्धा के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। यद्यपि जैन धर्म को अनीश्वरवादी कहा जाता है और इसी आधार पर कभी-कभी यह भी मान लिया जाता है कि उसमें श्रद्धा या भक्ति का कोई स्थान नहीं है किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है।'४ ये तीर्थंकर मुक्त जीव हैं। इनमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति एवं अनंत सुख विद्यमान हैं । इन्होंने राग-द्वेष, जन्ममरण एवं अन्य सांसारिक वासनाओं पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। सभी विकारों पर विजय प्राप्त करने के कारण इन्हें "जिन" कहा जाता है।५ जिन लोग स्वभाव सिद्ध, जन्मसिद्ध, शुद्ध, बुद्ध, भगवान् १. भारतीय दर्शन-दत्ता और चटर्जी, पृ० २४ २. द्रष्टव्य-पञ्चास्तिकाय समयसार १७६ और आगे ३. उत्तराध्ययन सूत्र १२।४४, १२।४६ तथा ९।४० ४. धर्म का मर्म, पृ० २९ ५. द्रष्टव्यः भद्रबाहु का कल्पसूत्र और श्रीमती स्टीवेन्सन का दि हर्ट ऑफ
जैनिज्म, चतुर्थ अध्याय
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