Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ ( ६७ ) उच्चारण मात्र से हिंसा होती है परन्तु इस प्रकार के आचरण में न तो मारण-ताड़न किया जाता है और न गुरु का वैसा अभिप्राय ही रहता है, अतः वह दोष से रहित है। उपयुक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिंसा की हीनाधिकता हिंसक के अभिप्राय-विशेष पर निर्भर है। हिंसा में संकल्प ही प्रमुख होता है। हिंसा के संकल्प के अभाव में यदि हिंसा होती है तो वह हिंसा नहीं मानी जा सकती। गृहस्थ श्रावक द्वारा भूमि जोतते हुए, मन्दिर बनाने के लिए पत्थर तोड़ते हुए, मुनि के द्वारा पद-यात्रा करते हुए यदि किसी प्राणी की हिंसा होती है तो उसे पाप के फल से मुक्त माना जाना चाहिए। हिंसा राग, द्वेष, कषाय और प्रमाद के कारण ही होती है और जब ये भाव मनुष्य में नहीं हैं तो उसे पाप का भागी नहीं माना जा सकता। जैसा कि प्रथम उदाहरण में हम देखते हैं कि प्रमादरहित होने के कारण मुनि त्रस-जीव की हत्या के बाद भी पाप का भागी नहीं है-एक गुरु मारने-ताड़ने रूप शाब्दिक हिंसा करने पर भी पाप से मुक्त है। परन्तु एक व्यक्ति यदि रस्सी को सांप समझकर मारता है तो वह पाप का भागी है क्योंकि वह संकल्पपूर्वक और द्वेष तथा क्रोध से मारता है। मेरी समझ से समाज या राष्ट्र के दायित्व का निर्वाह करते हुए यदि हिंसा होती है तो वह हिंसा के पाप का भागी नहीं है क्योंकि वह कुछ की हत्या कर बहुत की जान बचाता है। गीता में भी कृष्ण अर्जुन को विद्वेष भावना से रहित होकर, राग-द्वेष तथा प्रमाद के बिना युद्ध करने को कहते हैं। ऐसी स्थिति में वह हिंसा हिंसा नहीं है। निशीथ चूणि' में एक कथा का वर्णन है जिसमें तीन सिंहों की हत्या के पश्चात् भी एक मुनि को पाप का भागी नहीं माना गया है अपितु आश्चर्यजनक रूप से उसे विशुद्ध माना गया है क्योंकि उसने तीन सिंहों की हत्या करके हजारों साधूओं की जान बचायी थी। अतः मेरी समझ से यदि बृहत्तर हित के लिए हिंसा होती है तो उसे हिंसा की कोटि में नहीं रखा जा सकता। इसके उपरान्त आचार्य हरिभद्र स्थूलप्राणिवधविरति के ५ अति १. निशीथचूणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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