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( ६५ ) आचार्य हरिभद्र का यह दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही है। किसी प्राणी का वध करने पर वधकर्ता के अन्तःकरण में स्वभावतः ही संक्लेश होता है। इसके अतिरिक्त, बुरे कर्मों का बुरा ही फल मिले—यह तो आदिम युग की बर्बरता का उदाहरण होगा। फल (विपाक) ऐसा मिलना चाहिए जो मानवीय होने के साथ ही उपदेशात्मक भी हो । ऐतिहासिक उदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि सत्संग अर्थात् महान् व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर क्रूर से क्रूर व्यक्ति भी साधु हो गये और आत्मकल्याण की साधना में रत हो गये । अतन्कृतदशांग में वर्णित अर्जुन माली का उदाहरण द्रष्टव्य है। वह अपने प्रण के अनुसार प्रतिदिन छः व्यक्तियों की हत्या करता था और उसका यह क्रर कार्य छः माह तक चला। अन्त में वह महावीर के सम्पर्क में आकर साधु हो गया और अपने कर्मों का क्षय कर मुक्त हो गया। महात्मा बुद्ध और भयानक डाकू अंगुलिमाल का उदाहरण सर्वविदित है । गुणवान् व्यक्ति के सम्पर्क में आकर एक भयानक डाक कैसे सच्चरित्र साधु बन जाता है—यह उदाहरण दर्शनीय है। महात्मा गांधी का यह दृष्टिकोण कि पाप से घणा करो, पापी से नहीं- इसी सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने बुराई का जिस अहिंसक उपायों से सामना कियावह सर्वप्रसिद्ध है। जयप्रकाश नारायण ने कर डाकूओं के हृदय को परिवर्तित कर किस प्रकार उनको एक सच्चरित्र मानव के रूप में जीने का उपदेश दिया- उपर्युक्त सन्दर्भो में इसे अच्छी प्रकार समझा जा सकता है। अतः आचार्य हरिभद्र का यह दृष्टिकोण तार्किक होने के साथ ही उपदेशात्मक भी है और आधुनिक युग में महात्मा गाँधी द्वारा इस पर सफल प्रयोग भी किया जा चुका है।
कुछ व्यक्तियों का यह तर्क है कि बालक आदि के वध में अधिक और वृद्ध आदि के वध में अल्प हिंसा होती है।
इस मत का निराकरण करते हुए हरिभद्रसूरि का कहना है कि आगम में हिंसा का वर्णन द्रव्यक्षेत्रादि के भेद से भिन्न-भिन्न होता है। चूँकि पाप का जनक संक्लेश है अतः वह बाल व कुमार के वध में अधिक और वृद्ध एवं युवा के वध में कम हो--ऐसा नियम नहीं है। परिस्थिति के अनुसार वह इसके विपरीत भी हो सकता है।' १. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा २२१-२२
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