Book Title: Sramana 1990 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 68
________________ आचार्य हरिभद्र का उपर्युक्त मत जैन आगम ग्रन्थों के अनुकूल है । जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं-हिंसा-अहिंसा के निर्णय का मुख्य आधार भाव है। हिंसक की मानसिक वृत्ति के आधार पर ही हिंसाजनित अल्प-बहुत्व पाप का निर्णय किया जा सकता है। जैन परम्परा में हिंसा के अल्प-बहुत्व के निर्णय में जीवों की संख्या तथा उनकी युवावस्था अथवा वृद्धावस्था को गौण माना गया है। इसमें मानसिक भाव के साथ-साथ व्यक्ति की ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास क्षमता को मुख्य आधार बनाया गया। यही कारण था कि भगवतीसूत्रकार ने एक अहिंसक ऋषि की हत्या करने वाले को अनन्त जीवों की हिंसा करने वाला बताया है। इस सन्दर्भ में हम देखते हैं कि हिंसा के अल्प-बहुत्व के निर्णय में संख्या अथवा अवस्था का उतना स्थान नहीं है जितना कि व्यक्ति की स्वयं की सामाजिक मूल्यवत्ता एवं उसकी आध्यात्मिक विकास क्षमता का । आचार्य हरिभद्र ने हिंसा के चार उदाहरण देकर हिंसा के चार रूपों को समझाने का सफल प्रयोग किया है : (क) ईर्यासमिति के पालन में दत्तचित्त किसी साधु के पैरों तले चींटी आदि जीवों की मृत्यु हो जाने पर भी साधु हिंसा का भागी नहीं होता क्योंकि साधु का उद्देश्य प्राणी-पीड़न नहीं है, वह तो प्रमाद रहित होकर सावधानी पूर्वक ही गमन कर रहा है। (ख) अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को सर्प समझकर उसे मार डालने के विचार से उसके ऊपर शस्त्र का प्रहार करने वाला व्यक्ति सर्पघात रूप हिंसा के पाप का भागी होता है । यहाँ व्यक्ति को सर्पवध के बिना ही केवल सर्पघात के परिणाम (मनोभाव) से साम्प रायिक बन्ध होता है । (ग) एक व्याध मृग के शिकार के विचार से धनुष से उसके ऊपर बाण छोड़ता है जिससे विद्ध होकर मृग मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । वह व्याध द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से हिंसक है। एक गुरु शिष्य को सुयोग्य विद्वान् बनाने के लिए उसको मारने ताड़ने आदि का विचार प्रकट करता है। यद्यपि ऐसे शब्दों के १. भगवतीसूत्र, ९।३४।१०७ २. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा सं० २२३-२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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