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( ६२ ) से भिन्न है तो उसके शरीर का वध करने पर उससे भिन्न उस जीव का वध सम्भव ही नहीं है अतः शरीर-वध से जीव का वध हो ही नहीं सकता । पुनः यदि जीव शरीर से अभिन्न है तो शरीर के नष्ट होने पर जीव भी नष्ट हो जायेगा-ऐसी स्थिति में किसी प्राणी का वध करने पर न तो पुण्य होगा और न पाप ही । अतः अहिंसा व्रत पालन करने का कोई अर्थ ही नहीं होगा।
इन प्रश्नों का उत्तर देते हुये हरिभद्र ने जैन दर्शन के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को अपनाया है। आचार्य का कहना है कि जीव कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है -- इसी प्रकार वह शरीर से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न भी है--अतः जीव का वध सम्भव है और उससे होने वाला पाप और पुण्य भी सम्भव है । जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है, वहीं पर्यायदृष्टि से अनित्य है। जीव सर्वदा किसी न किसी शरीर के आश्रित रहता है तथा शरीर से किये जाने वाले शुभ-अशुभ कार्यों से पुण्य-पाप उपाजित करता है तथा उसके फल को भी भोगता है। साथ ही, जीव जहाँ स्वभावतः चेतन एवं अमूर्तिक है, वहीं शरीर जड़ और मूर्तिक है। इस प्रकार स्वरूप-भेद के कारण वह शरीर से भिन्न है किन्तु शरीर में व्याप्त होकर रहने के कारण वह उससे अभिन्न है और इसी आधार पर मूर्तिक भी है। मूर्तिक होने से उसका वध भी सम्भव है। __आचार्य हरिभद्र के उपर्युक्त मत की यदि हम समीक्षा करें तो उनका मत उपयुक्त प्रतीत होता है। यदि जीव को हम कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य नहीं मानेंगे तो हम संसार और लोकव्यवहार की कार्यप्रणाली को सम्यक रूप से नहीं समझ सकते। यदि हम जीव को सर्वथा नित्य मानें तो उत्पत्ति और विनाश से रहित संसार की कल्पना नहीं की जा सकती और इसके विपरीत, यदि जीव को नितान्त क्षणभंगुर मानें तो संसार का मूलकारण ही नहीं सम्भव होगा क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में वह अपने कृत्यों के फल का भोग ही नहीं कर सकता तथा साथ ही, पुनर्जन्म और पाप-पुण्य की अवधारणा ही समाप्त हो जायेगी। यह एक हास्यास्पद बात होगी कि पुण्य और पाप का १. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा १७८-७९ २. वही, गाथा १८०-९०
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