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और न यह हिंसा के चार भेदों के अन्तर्गत ही आती है । हिंसा-अहिंसा का निर्धारण में भाव ही मुख्य है। यदि श्रावक का भाव शुद्ध है तो उसका कार्य भी शुद्ध माना जाना चाहिए। जैन दर्शन में यह माना गया कि सम्यक् रूप से समितियों के पालन में दत्तचित्त साधु द्वारा यदि चींटी आदि जीवों की हिंसा हो जाती है, तो वह साधु पाप का भागी नहीं क्योंकि उसका भाव शुद्ध है, उसी प्रकार यदि कोई श्रावक शुद्ध भाव से दर्द से कराहते हुए को उसकी पीड़ा से सर्वदा के लिए मुक्ति दिला देता है तो वह श्रावक भी पाप का भागी नहीं माना जा सकता।
आधुनिक समाज में हिंस्र पशुओं एवं विषैले जीवों के वध को उचित माना जाता है। यह प्रश्न उठाया गया है कि यदि सिंह आदि हिंस्र पशुओं का वध न किया जाये तो वे किसी लोकोपकारक व्यक्ति (साधु) की हिंसा कर सकते हैं। इस भावी हिंसा-दोष की सम्भावना से हिंस्र एवं विषैले जीवों के वध को अनैतिक नहीं माना जाता है ।
आचार्य हरिभद्र ने इसका भी समाधान प्रस्तुत किया है । आचार्य का कहना है कि लोकोपकारक व्यक्ति की सम्भावित हिंसा के भय से 'किसी प्राणी के वध को उचित मान लेना युक्तिसंगत नहीं। क्योंकि सम्भावना यह भी हो सकती है कि वह लोकोपकारक संत पुरुष भविष्य में निकृष्ट आचरण करने लगे अथवा कुमार्ग का उपदेश देने लगे अथवा परस्त्रीगामी भी हो जाये । पुनः सम्भावना यह भी है कि मारे जाने वाले सिंह आदि हिंस्र जीव अपनी वृत्तियों के कारण नरक को जायें 'अथवा जीवित रहकर किसी साधु के समीप सम्यक्त्व प्राप्त कर आत्मकल्याण कर लें। संक्षेप में, हरिभद्र का कहना है कि भावी हिंसा की सम्भावना से किसी प्राणी का वध उचित नहीं। यदि इस प्रकार की भावी हिंसा के भय से हिंसा की जाने लगे तो समस्त लोकजीवन हिंसा से व्याप्त हो जायेगा । आचार्य का कहना है कि इस प्रकार की भावी
१. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ०
२०४ २. श्रावकप्रज्ञप्ति, गाथा सं० १६८-६९ ३. वही, १७१-७२
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