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हिंसा के भय से हिंसा का समर्थन करना अनुभव, लोक तथा आगम के विरुद्ध है' |
आचार्य हरिभद्र की उपर्युक्त दृष्टि का यदि हम मूल्यांकन करें तो उनका तर्क कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है । प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने का अधिकार है । अहिंसा का आधार ही जीवन के प्रति सम्मान एवं समत्व भावना है । जिस प्रकार हमें जीवन प्रिय है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी अपना जीवन प्रिय होता है । इस सम्बन्ध में दशकालिक का यह मन्तव्य है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता । यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जैसा कि आचारांग हमें बताता है 'सभी प्राणी सुखी रहना चाहते हैं एवं सभी को दुःख प्रतिकूल हैं ' । अतः चाहे सिंह आदि भयानक पशु हों अथवा केंचुए आदि हड़डी रहित जीव- सभी जीवित रहना चाहते हैं । उनके वध को किसी भी तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता । सिंह आदि पशुओं के वध में भय ही प्रमुख है । भय के कारण यदि हम एक प्राणी की हत्या करते हैं तो उन्हीं परिस्थितियों में दूसरा प्राणी भी हमारी हत्या कर सकता है । यदि यह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा तो सृष्टि की प्रक्रिया ही बन्द हो जायेगी । अहिंसा भयमुक्त वातावरण प्रदान करती है ।
अहिंसा के सम्बन्ध में कुछ दार्शनिक प्रश्न भी उठाये गये हैं । यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जीव नित्य है या अनित्य । यदि जीव नित्य है तो उसका वध हो ही नहीं सकता और यदि वह अनित्य है तो जो स्वयं नष्ट होने वाला है, उसका भी वध कैसे सम्भव है ? फलस्वरूप जब दोनों पक्षों में वध की सम्भावना ही नहीं है तो प्राणि
वध से विरत रहना निरर्थक ही है । इसी प्रकार यदि जीव शरीर
१. “इय अनुभवलोगागमविरुद्ध मेयं न नायसमयाणं मइविभमस्स हेऊ वयणं भावत्थनिस्सारं । "
- श्रावक प्रज्ञप्ति, गाथा सं० १७४
२. दशवैकालिक सूत्र, ६।११
३. आचारांग सूत्र, १।२।३
४.
श्रावक प्रज्ञप्ति, गाथा सं० १७६-७७
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